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नौकरी करे, इससे ज्यादा विचार कहीं से सुनने को नहीं मिलते।
ऐसे वायुमण्डल में न जाने कहां से, घर के हम तीन लोग मानो सभा में बैठे हों, इस तरह से "अंग्रेज सरकार का राज्य तोड़ना ही चाहिए।" इस तरह के विचारों की चर्चा आपस में करने लगे। आश्चर्य तो यह है कि ऐसे विचार दिमाग में आये कहां से?
समाज में अनेक जातियां हैं। अपनी जाति अलग । दूसरी जातियों का मानो समाज ही भिन्न । उनके यहां जाने का कारण ही नहीं। साथ खाना-पीना नहीं। जैसा जाति-भेद वैसा ही धर्म-भेद । मुसलमानों की भी एक जाति ही तो है। गोरों के पीछे-पीछे चलनेवाले देशी टोपीवालों की भी एक जाति अलग-इतना हम समझे हुए थे। विशेष भेद ध्यान में लेने की जरूरत नहीं थी।
ऐसी हालत में राज्य विदेशियों का है, उसकी चिढ़ किसी में दीखती नहीं थी। अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त संस्था चलानी चाहिए, लोगों में असंतोष फैलाना चाहिए, ऐसा हम मानते थे, उसकी चर्चा भी करते, किन्तु ये थे सारे ऊपर से ओढ़े हुए विचार।हमारे देश पर अंग्रेजों का राज्य हो यह हमारा बड़ा अपमान है, यह अनुभव हमें उत्कटता से नहीं हो रहा था और अंग्रेजों का राज्य हमें असह्य नहीं हो गया था।
ये विचार तो कॉलेज में जाने के बाद, पुणे के वायुमंडल में सर्वप्रथम जाग्रत हुए, ऐसा मुझे लगता है। तब तक तो एक सर्वभौम विचार प्रचलित था कि “पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी प्राप्त कर लेनी है।" खैर, कालेज के जिस विचार ने सर्वप्रथम जड़ पकड़ी वह था कांग्रेस-विरोधी। कांग्रेस में सब देशभक्त भले ही हों, किन्तु अंग्रेजों का राज्य अपने भले के लिए, ईश्वर की इच्छा से यहां आया है, "उनके साथ थोड़ी दलीलें करके प्रजा के लिए ज्यादा अधिकार प्राप्त करने चाहिए।" ऐसा मानने वाले अच्छे-अच्छे लोग भी थे। यहां के लोगों को अंग्रेजी राज्य अच्छा लगता है, किन्तु राज्य के सरकारी कामों से जनता में जो थोड़ा-बहुत असंतोष है वह दूर करें, पढ़े-लिखों को अच्छी नौकरियां देने से सब ठीक चलेगा, ऐसा मानने वाले अंग्रेज भी हैं। उनके सहयोग से लोगों को ज्यादा अधिकार दिलवाने चाहिए और ऐसा करने के लिए अंग्रेजों को अपनी वफादारी का भरोसा उत्पन्न होना चाहिए, इस तरह के विचार कांग्रेस फैलाती है और स्वतन्त्रता के विचारों को पनपने नहीं देती। अंग्रेजी राज्य को हटाने के लिए प्रजा में असंतोष बढ़ाने का काम मुख्य है, ऐसा माननेवाले पक्ष में मैं शामिल हो चुका था। इसलिए कांग्रेस का विरोध करना, यह हमारा मुख्य काम था।
क्या करना चाहिए, इसकी प्रकट चर्चा नहीं होती थी। लड़ना चाहिए, लड़ाई की तैयारी करनी चाहिए, इतना कहने वाले लोग भी बड़े देशभक्त माने जाते। समाज में राजनैतिक विचारों के अनुसार एक पक्ष को 'जहाल' और दूसरे पक्ष की 'मवाल' कहते थे। जहाल पक्ष के नेता थे लोकमान्य तिलक । उनकी राजनीति मुझे पसंद थी, लेकिन उनकी समाजनीति तनिक भी पसंद न थी। नरम पक्ष के लोग समाज-सुधार का अच्छा प्रचार करते। उसका महत्त्व मुझे जंचता था। समाज-सुधार के बिना सारा समाज एक हो नहीं सकेगा, उसमें तेजस्विता आयेगी नहीं, इस विचार का प्रचार मैं जोश से करने लगा।
लोकमान्य तिलक अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष बढ़ाने का काम तो अच्छी तरह करते हैं, किन्तु स्वातंत्र्य का प्रचार जोश के साथ नहीं करते, यह असंतोष उनके खिलाफ हमारे मन में था।
इसलिए मैं नासिक के सावरकर की गुप्त संस्था में शामिल हुआ । देखा कि वहां गुप्तता कहीं मिलती न थी। केवल विचार फैलाने का ही काम हो रहा था । बहुत हुआ तो थोड़ी पिस्तोलें और रिवॉल्वर इकट्ठी करके दो-चार अंग्रेजों का खून करने से क्या फायदा ? उस समय से कहता आया हूं कि अंग्रेज कायरों की औलाद नहीं है। दो-चार और पांच-दस अंग्रेजों का खून करने से वे भाग नहीं जायेंगे, उल्टा वे भयंकर हो जायेंगे । एक तरफ तोवे सामान्य जनता को खुश करते जायेंगे, नरम दल के लोगों को अच्छी-अच्छी नौकरियां
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १३५