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________________ CHINTAC परम सौभाग्य की बात है कि श्रद्धेय काकासाहेब कालेलकर ने अपने यशस्वी जीवन के ६४ वर्ष पूर्ण करके ६५वें वर्ष में पदार्पण किया है। काकासाहेब व्यक्ति नहीं, एक संस्था-महान संस्था-हैं। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, कला. दर्शन आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह सर्वविदित है। गांधीजी के सिद्धान्तों में उनकी गहन आस्था है । अपने स्वतंत्र चिन्तन, सशक्त लेखन तथा ओजस्वी वाणी से उन्होंने अपने देशवासियों को ही नहीं, अन्य अनेक देशों के असंख्य भाई-बहनों को अनप्राणित किया है। काकासाहेब ने विपुल साहित्य की रचना की है। उनकी बहुत-सी पुस्तकें हिन्दी, गुजराती मराठी आदि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध हैं। ये पस्त प्रेरणा का अक्षय स्रोत हैं। उन्हें पढ़कर पाठकों को जहां अपार आनंद मिलता है, वहां उनका ज्ञानवर्द्धन भी होता है। काकासाहेब जीवन भर परिव्राजक रहे हैं। देश-विदेश में खूब घूमे हैं। जापान की तो उन्होंने छः बार यात्रा की है । अपने इन प्रवासों में उन्हें जो अनुभव हुए हैं, आनंद की अनुभूति हई है, उसका भरपूर लाभ उन्होंने पाठकों को दिया है। उनके यात्रा-साहित्य को पढ़कर पाठक विभोर हो उठते हैं। उनके विवरण इतने सजीव और जीवन्त हैं कि पाठकों को लगता है कि वे स्वयं काकासाहेब के साथ यात्रा कर रहे हैं। काकासाहेब का अध्ययन अत्यन्त बहुमुखी तथा सूक्ष्म रहा है। उन्होंने भारत के ही नहीं, सारे संसार के अध्यात्म, दर्शन, कला, संस्कृति आदि से संबंधित वाङ्मय का स्वाध्याय किया है और उनका सार ग्रहण करके उसमें पाठकों को भागीदार बनाया है। काकासाहेब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे निरंतर गतिशील रहे हैं और प्रत्येक क्षण उनका विकास होता रहा है। यही कारण है कि वे नये-नये क्षेत्रों में बराबर प्रवेश करते गये हैं। उनका जीवन-पटल इतना विशाल और वैविध्य-पूर्ण है कि उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है। काकासाहेब का हृदय बहुत ही संवेदनशील है। जो भी उनके सम्पर्क में आता है, उस पर वह अपने वात्सल्य की वर्षा करते हैं। उनके लिए.धर्मों, संस्कृतियों, विश्वासों, राष्ट्रीयताओं आदि की परिधियां कोई महत्व नहीं रखतीं। उनका धर्म मानव-धर्म है, जिसका मूलाधार प्रेम है। काकासाहेब की इक्यासीवीं वर्षगांठ पर, 'सस्ता साहित्य मंडल' आदि संस्थाओं ने एक ग्रंथ 'संस्कृति के परिव्राजक' प्रकाशित किया था, जिसे राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें १ दिसम्बर १९६५ को समर्पित किया था। उस ग्रंथ को पाठकों ने इतना पसंद किया कि कुछ ही समय में उसकी सारी प्रतियां खप गई।
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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