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________________ हुए आत्मदर्शन-युक्त जीवन दर्शन उनके मत से सर्वश्रेष्ठ हैं। जीवन दर्शन और सेवा करने की आवश्यकता ये दोनों आध्यात्मिकता के अंतर्गत हैं। वह विचार काकासाहेब ने अपने साहित्य में उत्कटता से दिया है । अध्यात्म-विद्या की साधना से उत्तम सिद्धि प्राप्त करने के बाद जीवन-साधना करनी चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो मात्र अध्यात्म-विद्या का प्रयोग कभी नहीं हो सकता, ऐसा काकासाहेब का निश्चित मत है । उनकी यह जीवन-साधना केवल व्यक्ति के लिए नहीं, अथवा समाज तक जाकर ही वह रुकती नहीं है, वह तो समग्र मानवता जितनी विस्तृत है । आत्मदर्शन जीवन साधना की यह सीमा है। इससे तनिक भी संकुचित ध्येय, इससे छोटी महत्वाकांक्षा, काकासाहेब को कभी भी संतोषदायक नहीं लगी । अपने ग्रन्थ और अपने गुरु को पूर्णतया परख-परख कर ही वे उनके सान्निध्य में गये । उन्होंने अपने निवास स्थान को 'सन्निधि' का नाम दिया है । वे कभी भी ग्रन्थ- परतन्त्र या गुरु-परतन्त्र हो नहीं सके । उनके विचारों की स्वतन्त्र शैली है । सब धर्मों के मूल सिद्धान्तों की सार रूपी धार्मिकता उनमें है। ईश्वर का वरदान उन्हें मिला हुआ है । इसी को वे 'युगधर्म' कहते हैं । यही है उनका वेदान्त और उनका अध्यात्म | वेदान्त शब्द Satara को अच्छा नहीं लगता । वेदान्त में भी द्वैत, अद्वैत, विशिष्टा द्वैत, जैसे किसी भी पंथ या सम्प्रदाय काकासाहेब अटके नहीं। गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र इस प्रस्थाव- त्रयी का कितना ही अध्ययन किया हो, तो भी उसमें अपने आपको कभी सीमित नहीं किया, न दूसरों को भी ऐसी प्रेरणा ही दी । अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय उनमें ओत-प्रोत है। इसी तरह 'सर्व धर्म समन्वय' में भी उनकी निष्ठा है और जीवन का उनका अन्तिम आग्रह है । उनके जीवन में 'अध्यात्म विज्ञान - समन्वय' है । मानवजाति के विकास के लिए अध्यात्म-विद्या और विज्ञान को हाथ से हाथ मिलाकर चलना चाहिए, ऐसा वे मानते हैं । ऐसे महान पुरुष के सान्निध्य में क्षण-भर बैठने से भी मनुष्य कुछ-न-कुछ सहज ही सीख लेता है। बापूजी ने एक बार मुझसे कहा था, "काकासाहेब की बुद्धि सिर्फ चलती नहीं बल्कि दोड़ती है ।" एक बार विनोबाजी ने चर्चा में कहा था, "बड़े मजे की बात है कि काकासाहेब अपने विचार लिखवाने लगते हैं और उसमें कोई सुधार भी नहीं करना पड़ता ।" उनका समस्त 'चिन्तन' किसी भी क्षण किसी भी विषय पर सदा तैयार रहता है । उन्होंने मृत्यु का सम्पूर्ण विचार कर रखा है। स्वयं मृत्यु ने भी अपने विषय में इतना चिन्तन किया होगा या नहीं, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। 'परमसखा मृत्यु' नाम की पुस्तक काकासाहेब के चिन्तन से ओतप्रोत है । ऐसे ऋषितुल्य व्यक्ति के पास जाकर विद्या के समुद्र में गोते लगाते रहने से बड़ा आनंद मिलता है। वह "परिणत सुविचार अनुभव की पवित्र खान" हैं | C ८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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