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पीएच.डी. की उपाधि प्रदान कर दी जाय।' __ जैसे ही उन्होंने यह वाक्य लिखा, मेरे जी में जी आया। मेरे मुंह से निकला, 'यही लिखना था तो फिर तीन | पेज लिखने की क्या आवश्यकता थी?' शर्माजी ने एक अर्थ भरी दृष्टि से मुझे देखा और फिर अपनी लिखी
रिपोर्ट फाड कर रद्दी की टोकरी में डाल दी। कहने लगे- 'अच्छा तो आप लिखिए।'
__ मैंने हिन्दी में संक्षिप्त, सारगर्भित रिपोर्ट लिखी। उन्होंने हस्ताक्षर किये। युनिवर्सिटी रजिस्ट्रार को रिपोर्ट देकर | हम बाहर निकले वहाँ शेखर के दोस्त उन्हें घेरे खड़े थे। हमें देखकर कहने लगे, 'शेखर को इतनी जल्दी आपने
पीएच.डी. की डिग्री दे दी। हमें तो बरसों लग गये थे।' ___ यह सुनकर शर्माजी ने कहा, 'तुममें और इनमें बहुत फर्क है। तुम अंगुली के थे, ये गोदी के हैं।' फिर स्पष्ट करते हुए कहने लगे कि एक बार किसीने ज्ञानदेव से भक्ति का मार्ग पूछा। ज्ञानदेव ने कहा मैं क्या जानूं मैं तो गुरू की गोदी में था। अंगुली पकड़े पकड़े तो कबीर चल रहे थे मार्ग वहीं जानते हैं। उससे पूछो।' ___ शर्माजी के वचन वेधक ते। उनका मर्म मैं समझ सकता था। किन्तु जो उन्होंने कहा वह सच था। शेखर सचमुच अन्य शिष्यों की तुलना में श्रद्धालु थे। इसी कारण उनके प्रति मेरा विशेष ममत्व था। जिसको लक्ष्य करके डॉ. शर्माजी ने यह कहा था। वह ममत्व आज भी है और आगे भी रहेगा। ___ डॉ. शेखर की एक ध्यानपात्र विशेषता यह है कि दिगंबर जैन मतावलंबी होते हुए भी वे सर्वधर्म समभावी हैं। भारतीय संस्कृति के वे संवाहक हैं। साहित्य, दर्शन के मर्मज्ञ हैं। अध्ययन-अध्यापन, लेखन, मनन उनका अध्यव्यसाय है। तार्किक प्रवृत्ति के कारण कुछ लोगों को वे कठोर लग सकते हैं किन्तु 'नारिकेल समाकारा दृष्यंते ही सुहृदजना' कथनानुसार वे मित्रों के लिए नारियल के समान उपर से कठोर अंदर से कोमल हैं विरोधियों के लिए भले 'अन्येबदरिकाकार बहिरेव मनोहरा।' झरबेरी के बेर के समान उपर से मनोहार होते हुए भी कठोर हो । जाते हैं। ऐसे श्री शेखरचंद्र जैन की धर्मचेतना विद्वत्ता और पुनीत साधना निरामयी रहे। उनका ऐसे सरल और । विरल व्यक्तित्वों के लिए ही महर्षि चाणक्य ने कहा है
"शैले-शैलेन माणिक्य, मौक्तिकम् न गजे गजे, साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न बने बने।"
डॉ. अम्बाशंकर नागर । निदेशक- भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद
" જૈન સમન્વયના પ્રખર હિમાયતી
હું ડો. શેખરચન્દ્ર જૈનને ૧૯૯૫થી ઓળખું છું. તેઓની સાથે પ્રથમ મુલાકાત જ્યારે તેઓ ફેંકફર્ટ થી ન્યૂયોર્ક જઈ રહ્યા હતા ત્યારે થઈ હતી. પછી અઠવાડિયા પછી ટેક્સાસના શહેર ડલાસમાં તેઓ દેરાસરમાં પ્રવચન કરી રહ્યા હતા ત્યારે થઈ અને હું તેમનાં પ્રવચનોથી ખૂબ જ પ્રભાવિત થયો. તેઓને મારા ગામ વેકો લઈ ગયો. જોકે ત્યાં જૈન હું એકલો જ છું પણ બધા ભારતીય પરિવારોને બોલાવી તેમનું પ્રવચન રાખેલ. ત્યારપછી પણ એક-બે વખત તેઓ મારા ઘરે આવ્યા. અમો પરિચિત માંથી મિત્રો બની ગયા અને પછી તો અવાર-નવાર મળવાનું બનતું જ રહ્યું.
હું સૌથી વધુ પ્રભાવિત થયો તેમની પ્રવચન શૈલીથી. તેઓ જૈન ધર્મના ગૂઢ તત્વોને ખૂબ જ સરળ ભાષામાં સમજાવી શકે છે. શૈલી ખૂબ જ રમતિયાળ છે જેથી સાંભળવાનું ગમે. બીજું પાસું તેમનું નમસ્કાર