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। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध
जैन दार्शनिक शब्द और अर्थ में वाचक-वाच्य सम्बन्ध कहते हैं। परीक्षा-मुख में वर्णित है कि शब्द और अर्थ 1 में वाचक-वाच्य शक्ति है, उसमें संकेत होने से अर्थात् इस शब्द का वाच्य यह अर्थ है, ऐसा ज्ञान हो जाने से | शब्द आदि से पदार्थों का ज्ञान होता है। शब्द और अर्थ में जब कोई सम्बन्ध नहीं होता, तो शब्द अर्थ का वाचक । कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर कषायपाहुणकार देते हैं कि “जिस प्रकार से प्रमाण का अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध
नहीं है, तथापि वह अर्थ का वाचक हो जाता है। प्रमाण और अर्थ के स्वभाव से ही ग्राहक और ग्राह्य का सम्बन्ध | है, तो शब्द और अर्थ में भी स्वभाव से ही वाचक और वाच्य सम्बन्ध क्यो नहीं मान लेते?" और यदि शब्दार्थ
में स्वभावतः ही वाच्य-वाचक भाव है, तब फिर पुरुष के या जीव के उच्चारण के प्रयत्न की क्या आवश्यकता? यदि स्वभाव से ही प्रमाण और अर्थ में सम्बन्ध होता, तो इन्द्रिय-व्यापार की व प्रकाश की आवश्यकता क्यों कर पड़ती? अतः प्रमाण और अर्थ की भांति ही शब्द में भी अर्थ-प्रतिपादन की शक्ति समझनी चाहिए, अथवा शब्द और अर्थ का सम्बन्ध कृत्रिम है अर्थात् यह सम्बन्ध के द्वारा किया हुआ है, अतः पुरुष के व्यापार की आवश्यकता होती है। अतः शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक भाव सम्बन्ध है, कषायपाहुण की भी यही मान्यता है।
जैन दार्शनिकों की एक मान्यता यह भी है कि भिन्न-भिन्न शब्दों के भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है कि यदि शब्दों में भेद है, तो अर्थों में भी अवश्य होना चाहिए। राजवार्तिक के अनुसार शब्द का
भेद होने पर अर्थ अर्थात् वाच्य पदार्थ का भेद आवश्यक है। राजवार्तिक के अनुसार जितने शब्द हैं, उतने ही अर्थ । हैं। जैन दार्शनिक यह भी कहते हैं कि शब्द का अर्थ देशकालानुसार परिवेश को ध्यान में रखकर ही करना
चाहिए, क्योंकि एक समय में और एक परिस्थिति में एक शब्द का अर्थ कुछ होता है और परिस्थिति या समय के बदलते ही उस शब्द का अर्थ भी बदल जाता है।