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________________ 456 | जिस पुरुष को देवे, ऐसे क्रिया रूप अर्थ को धारता हुआ देवदत्त है। इसी प्रकार यज्ञदत्त भी क्रियावाची है। दण्डी, | विषाणी आदि संयोगद्रव्यवाची या समवायद्रव्यवाची शब्द भी क्रियावाची ही हैं, क्योंकि दण्ड जिसके पास वर्त रहा । है, वह दण्डी और सींग जिसके वर्त रहे हैं, वह विषाणी कहा जाता है। जाति शब्दादि रूप पाँच प्रकार के शब्दों i की प्रवृत्ति तो व्यवहार मात्र से होती है। शब्द के श्रवण और संचार सम्बन्धी नियम - वक्ता बोलने के पूर्व भाषा-परमाणुओं को ग्रहण करता है, भाषा के रूप में उनका परिणमन करता है और अन्त में उनका उत्सर्जन करता है। उत्सर्जन के द्वारा बाहर निकले हुए भाषा-पुद्गल आकाश में फैलते हैं। वक्ता का प्रयत्न यदि मन्द है, तो वे पुद्गल अभिन्न रहकर "जल-तरंग" न्यास से असंख्य योजन तक फैलकर शक्तिहीन हो जाते हैं और यदि वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है, तो वे भिन्न होकर दूसरे असंख्य स्कन्धों को ग्रहण करते-करते अति-सूक्ष्म काल में लोकान्त तक चले जाते हैं। ___ जब दो स्कन्धों के संघर्षो से कोई एक शब्द उत्पन्न होता है, तो वह आस-पास के स्कन्धों को अपनी शक्ति के अनुसार शब्दायमान कर देता है अर्थात उसके निमित्त से उन स्कन्धों में भी शब्दपर्याय उत्पन्न हो जाती है। जैसे- जलाशय में एक कंकड डालने पर जो प्रथम लहर उत्पन्न होती है, वह अपनी गति/शक्ति से पास के जल ! को क्रमशः तरंगित करती जाती है और यह वीचि-तरंग न्याय किसी न किसी रूप में बहुत दूर तक प्रारंभ रहता है। शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेश से उछलकर दशों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अन्त भाग तक जाते हैं- सब नहीं जाते हैं, थोड़े ही जाते हैं। यथा- शब्द पर्याय से परिणत हुए प्रदेश में अनन्त पुद्गल | अवस्थित रहते हैं। (उससे लगे हुए) दूसरे आकाश प्रदेश में उससे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेश में उससे लगे हुए अनन्त गुणें हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेश में उससे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते है। इस तरह वे अनन्तरोपनिधा की अपेक्षा वात-वलय पर्यन्त सब दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश के प्रति अनन्तगुणे हीन होते हुए जाते हैं। ये सब शब्द-पुद्गल एक समय में ही लोक के अन्त तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है, किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कम से कम दो समय लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा लोक के अन्त को प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्याय से परिणत हुए पुद्गलों के गमन और अवस्थान का कथन करना चाहिए। हम जो शब्द सुनते हैं, वह वक्ता का मूल शब्द नहीं सुन पाते। वक्ता की शब्द-श्रेणियाँ-आकाश प्रदेश की पंक्तियों में फैलती हैं। ये श्रेणियां वक्ता के पूर्व-पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊँची और नीची, छहों दिशाओं में हैं। हम शब्द की सम-श्रेणी में होते हैं, तो मिश्र शब्द को सुनते हैं अर्थात वक्ता द्वारा उच्चरित शब्द-द्रव्यों और उनके द्वारा वासित शब्द-द्रव्यों को सुनते हैं। यदि हम विश्रेणी (विदिशा) में होते हैं, तो केवल वासित शब्द ही सुन पाते हैं। (प्रज्ञापना, पद 11) मनुष्य भाषागत समश्रेणिरूप शब्द को यदि सुनता है, तो मिश्र को ही सुनता है और उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द को यदि सुनता है, तो नियम से परघात के द्वारा सुनता है। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुद्गलों को परघात और अपरघात रूप से सुनता है। यथा-यदि परघात नहीं है, तो बाण के समान ऋजुमति से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलों को सुनता है, क्योंकि समश्रेणि से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों का श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द पुनः शराघात के द्वारा ही सुने जाते हैं, अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। जैनदर्शन में भाषात्मक शब्द औरअभाषात्मक शब्द के भेद से शब्द के प्रथमतः दो भेद किये गये हैं।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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