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प्रकार यह शब्द नियत रूप से उत्पन्न होनेवाला, उत्पाद्य है अर्थात् पुद्गल की पर्याय है । शब्द की यह उत्पत्ति गल स्कन्धों के संघात और भेद से होती है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने शब्दों को पुद्गल का कार्य मानते हुए उन्हें पुद्गलों में उसी प्रकार आश्रित माना है, जैसे कि कोई भी कार्य - द्रव्य कारण - द्रव्य में आश्रित रहता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार पुद्गल द्रव्य का सामान्य लक्षण है- रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से होना । युक्त पुद्गल के दो भेद हैं
1. परमाणु 2. स्कन्ध
'पंचास्तिकाय' में परमाणुओं के सम्बन्ध में कहा गया है - "सब स्कन्धों का जो अन्तिम खण्ड है अर्थात् जिनका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता, उसे परमाणु जानो। वह परमाणु नित्य है, शब्द रूप नहीं है, एक प्रदेशी है, विभागी है और मूर्तिक है" "आधुनिक विज्ञान ने परमाणु के भी जो प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि खण्ड किए हैं, उससे भी जैनदर्शन की मान्यता पर कोई आघात नहीं होता, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार वह परमाणु है, जो अखण्ड्य हो अर्थात् यदि न्यूट्रोन से भी कोई छोटा खण्ड हो जाए, हम न्यूट्रोन को अखण्ड्य नहीं कह पाएंगे। हाँ, यह कहा जा सकता है कि वर्तमान ज्ञान के अनुसार प्रोटोन अखण्डय है, पर वस्तुतः वह है तो नहीं ।" जिसमें एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श गुण होते हैं, जो शब्द की उत्पत्ति में कारण तो हैं, परन्तु स्वयं शब्द1 रूप नहीं है, स्कन्ध से पृथक् है, उसे परमाणु जानो । यद्यपि नित्य तथापि स्कन्धों के टूटने से इसकी उत्पत्ति होती है अर्थात् अनेक परमाणुओं का समूह रूप स्कन्ध जब विघिटत होता है, तब विघटित होते-होते उसका अन्त परमाणु रूपों में होता है, इस दृष्टि से परमाणुओं की भी उत्पत्ति मानी गयी है, परन्तु द्रव्य रूप से तो परमाणु नित्य ही है। यह स्कन्धों का कारण भी है और स्कन्धों के भेद से उत्पन्न होने के कारण कार्य भी । अनेक परमाणुओं के बन्ध से जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध कहते हैं। हम जो कुछ देखते हैं, वह सब स्कन्ध ही है, धूप में जो कण उड़ते हुए दिखाई देते हैं, वे भी स्कन्ध ही हैं । पुद्गल की परमाणु अवस्था स्वाभाविक पर्याय है और स्कन्ध । अवस्था विभाव पर्याय | प्रो. एस. एन. दास गुप्त के अनुसार जैनदर्शन में पुद्गल एक भौतिक पदार्थ है और उसे परिमाण - विशेष से युक्त माना गया है। इस पुद्गल की उत्पत्ति परमाणुओं से बताई गई है। ये परमाणु जैनदर्शन में परिमाण - रहित एवं नित्य माने गए हैं।
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जैनदर्शन में शब्द को उत्पाद्य मानने के कारण जो अन्य दर्शनों में इसकी नित्यता स्वीकारी गई है, वह भी खण्डित हो जाती है। मुख्य रूप से यह आकाश का गुण न होकर पुद्गल द्रव्य का ही विकार है। केवल एक परमाणु या केवल एक स्कन्ध शब्द को उत्पन्न नहीं कर सकता। इससे सिद्ध होता है कि केवल एक परमाणु शब्द-रूप नहीं होता है। जैनों का कहना है कि जैसे वैशेषिक स्वीकारते हैं कि शब्द आकाश का गुण होता है - को सही मान लिया जाए, तो मूर्तिक कर्णेन्द्रिय के द्वारा शब्द का ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि अमूर्तिक आकाश का गुण | भी अमूर्तिक ही होगा और अमूर्तिक को मूर्तिक इन्द्रिय जान नहीं सकती। आज वैज्ञानिक भी इस बात को सिद्ध 1 करते हैं कि शब्द वैकुअम रिक्त स्थान में संचरित नहीं होता, यदि शब्द आकाश के द्वारा उत्पाद्य होता या आकाश का गुण होता तो वह वैकुअम- शून्य अर्थात् रिक्त-स्थान में भी सुना जाता, क्योंकि आकाश तो सर्वत्र विद्यमान है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में यह सामान्य अनुभव है कि शब्द का मूल संघर्षण में है । उदाहरणार्थ- स्वर - उत्पादन के समय में स्वरित्र के कांटे, घंटी, पिआनो की तंत्रियाँ और बाँसुरी की वायु शब्द आदि सभी कम्पायमान स्थिति में होते हैं। शब्द टकराता भी है, क्योंकि कुए में आवाज करने से प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। ! आज के विज्ञान ने अपने रेडियो, टी. वी. और ग्रामोफोन आदि यंत्रों से शब्द पकड़कर और अपने अभीप्सित