________________
94361
म तियों के वातावन । ___ भाव नहीं हैं। वे जीव और अजीव दोनों द्रव्यों में पाये जाते हैं किन्तु औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक
औदयिक और पारिणामिक ये पांचों भाव जीव के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं किसी भी द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं। यही कारण है कि ये जीव के स्वतत्त्व हैं।
औपशमिक भाव-जिस भाव की उत्पत्ति में कर्म का उपशम निमित्त होता है। वह औपशमिकभाव कहलाता है। कर्म की अवस्था विशेष का नाम उपशम है। यथा फिटकिरी डालने से जल में से गन्दगी एक ओर हट जाती है, उसी प्रकार परिणाम विशेष के कारण विवक्षितकाल के कर्म निषेकों का अन्तर होकर उस कर्म का उपशम हो जाता है, जिससे उस काल के भीतर आत्मा का निर्मलभाव प्रगट होता है। इसके दो भेद हैं। औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र तथा उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्त राग, उपशान्तद्वेष, उपशान्तमोह, उपशान्त कषाय, वीतराग छद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये सभी औपशमिक भाव हैं। ___ औपशमिक सम्पक्त्व- सात प्रकृतियों के उपशम में औपशमिकसम्यक्त्व होता है। चारित्रमोहनीयकर्म के कषायवेदनीय की चार प्रकृति अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ व दर्शनमोहनीय के सम्यक्प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिकचारित्र - समस्त मोहनीयकर्म के उपशम से औपशमिकचारित्र होता है। चारित्रमोहनीय कर्म की अनन्तानुवन्धी चतुष्क से अतिरिक्त अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्ज्वलन चतुष्क और नौ नोकषाय के उपशमन से आत्मपरिणामों की जो निर्मलता होती है उसको औपशमिक चारित्र कहते हैं।
क्षायिक भाव-जिस जल का मैल नीचे गया हो उसे यदि दूसरे बर्तन में रख दिया जाय तो उसमें अत्यन्त निर्मलता से जो भाव होते हैं, वे क्षायिकभाव हैं। सार रूप में कह सकते हैं कि प्रतिपक्ष कर्मों के सर्वथा क्षय से जीव के जो भाव उत्पन्न होते हैं वे क्षायिकभाव कहलाते हैं। वे नौ हैं, उनकी उत्पत्ति इस प्रकार समझी जा सकती है, । ज्ञानावरणकर्म का नाश होने पर क्षायिकज्ञान- केवलज्ञान उत्पन्न होता है। दर्शनावरणकर्म के क्षीण होने पर । क्षायिकदर्शन (अनन्तदर्शन) उद्भूत हुआ करता है। अन्तराय के पूर्ण नष्ट होने पर दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पांच भाव आविर्भूत होते हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के सर्वथा क्षीण होने पर क्षायिकसम्यक्त्व और चारित्रमोहनीय का सर्वथा क्षय होने पर क्षायिकचारित्र प्रकट होता है। इनमें । से क्षायिकसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान वाले पुरुष को किसी भी गुणस्थान में उत्पन्न हो । सकता है। वह केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही होगा। क्षायिकचारित्र बारहवें गुणस्थान में ही प्रगट होगा शेष अनन्तज्ञानादि सात भाव तेरहवें गुणस्थान में ही उत्पन्न होते हैं। सभी क्षायिक भावों में व्यापक सिद्धत्व का कथन भी किया गया है जैसे पौरों के पृथक् निर्देश से अञ्जलि सामान्य का निर्देश हो जाता था।
क्षायोपशमिकभाव- परिणामों की निर्मलता से एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना क्षयोपशम है जैसे मादक कोदों को धोने से कुछ मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ क्षीण नहीं होती है। क्षयोपशम को लिए हुए जो भाव होते हैं वे क्षयोपशमिक भाव हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कर्मों के उदय होते हुए भी जो जीव गुण का अंश (खण्ड) उपलब्ध रहता है, वह क्षायोपशमिकभाव है। इसे मिश्र भाव भी कहते हैं। आचार्य वीरसेन ने उक्त लक्षणों से भिन्न भी क्षयोपशम का स्वरूप बतलाया है। 'सर्वधाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं, उन सर्वघाती स्पर्धकों का अनन्तगुणा हीनत्व ही क्षय कहलाता है और उनका देशघाती समर्थकों के रूप में अवस्थान होना उपशम हैं, उन्हीं क्षय और उपशम से