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स्मृतियों के वातायन से
। चार तामसिक हैं। सांख्य के अनुसार इनमें सिर्फ ज्ञान को छोड़कर शेष सभी सातों भाव अज्ञान, धर्म, अधर्म, राग, विराग, ऐश्वर्य, अनैश्वर्य आदि पुरुष को बंधनग्रस्त करते हैं। इस प्रकार सांख्य दर्शन में शुभ प्रवृत्तियाँ भी बंधन का कारण हैं।
सांख्य में तीन प्रकार का बंधन : सांख्य दर्शन में तीन प्रकार का बंधन 31 स्वीकार किया गया है जिसका आधार प्रकृति पुरुष की अवस्थात्मक सम्बद्धता है।
1. प्राकृतिक बंध : प्रकृति को ही यथार्थ स्वरूप (आत्मा) मानकर जो उसकी उपासना करते हैं। भौतिक शरीर के पश्चात् उनका सूक्ष्म शरीर प्रकृति में लय हो जाता है। यह सूक्ष्म शरीर (लिंग) दीर्घकाल तक अव्यक्त
न रहता है, अव्यक्त अवस्था की समाप्ति पर उस शरीर को पुनः नया शरीर धारण करना पड़ता है। इस प्रकार पुरुष का प्रकृति से यह जुड़ाव उसे जन्म मरण के चक्र से जोड़ देता है। प्रकृति पर आधारित होने के कारण इसे प्राकृतिक बंध कहा गया है।
2. वैकृतिक बंध : यह बंध प्रकृति के विकारों से सम्बंधित है अर्थात् जब पुरुष का जुड़ाव पंचमहाभूत, इन्द्रिय अहंकारादि से होता है और प्रकृति के यह विकार परुष को अपने लगते हैं तो पुरुष उसी में खोकर उसे ही पाना चाहता है। इसमें इन्द्रियों की आशक्ति और इन्द्रिय सुख में लीनता रहती है। इस बंधन में दुखानुभूति का अभाव होता है। प्रकृति के विकारों पर आधारित होने के कारण इसे वैकृतिक बंध कहा गया है।
3. दाक्षिणक बंघ : लौकिक और पारलौकिक सुखों की बुद्धि की कामना से अभिप्रेरित सभी प्रकार के कर्मों से दाक्षिणक बंध होता है। मुख्यतः यज्ञादि कर्म जो दान दक्षिणा की कामना से प्रेरित होते हैं इस बंधन का आधार हैं। इस प्रकार का जीव यज्ञादि जैसे शुभादि कर्मों के सम्पादन के बावजूद भी विवेक से वंचित रहकर अपना बंध करते हैं। इस प्रकार सांख्य दर्शन में यज्ञादि कर्मों के सम्पादन का प्रथम विरोध मिलता है।
उपरोक्त दोनो दर्शनों के बंधन सिद्धांत की व्याख्या के आधार पर सहज रूप में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बंधन की अवधारणा में दोनो दर्शनों में पर्याप्त समानता देखी जा सकती। उन बिन्दुओं का विवेचन अपेक्षित है जहाँ पर दोंनो दर्शन पर्याप्त नजदीक दिखाई पड़ते हैं।
मिथ्यात्व कषाय और विपर्यय: जैन एवं सांख्य दर्शन दोंनों में बंधन का मूल कारण मिथ्यात्व को माना गया है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व कषाय पर आधारित है। मिथ्यात्व दृष्टि के कारण जीव अपना यथार्थ स्वरूप भूलकर पर द्रव्य को सही मानता है इस प्रकार मिथ्यात्व कषाय जनित अवस्था है इसमें मुख्यतः जीव को विपरीत ज्ञान · होता है। जैनदर्शन में यह मिथ्यात्व पाँच रूपों में पारिभाषित किया गया है। जैनदर्शन की मिथ्यात्व की अवधारणा सांख्य दर्शन में विपर्यय रूप में विवक्षित है। सांख्य इस विपर्यय को ही बंधन का मूल कारण मानता है और विपर्यय का अर्थ विपरीत ज्ञान माना है। सांख्य का यह विपर्यय भी पाँच प्रकार का है। सांख्य दर्शन, कषाय को विपर्यय ! के रूप में मानता है इस प्रकार सांख्य के अनुसार विपर्यय और कषाय एक ही हैं। इस प्रकार दोनों दर्शन बंधन मूलकारण पर एकमत हैं और इसे अनादि मानते हैं।
'कषाय और विपर्यय की उत्पत्ति भी जैन एवं सांख्य दर्शन जीव पर पुद्गल के प्रभाव का परिणाम मानते हैं। सांख्य के अनुसार विपर्यय बुद्धि का तमोगुण प्रधान धर्म है अतः यह प्रकृति जन्य है। इसी तरह जैन दर्शन भी मिथ्यात्व या कषाय को जीव के ऊपर कर्म पुद्गलों का प्रभाव मानता है। इस तरह दोनों दर्शन बंधन के मूलकारण के रूप में समान सिद्धांत रखते हैं।
जीव - अजीव एवं पुरुष प्रकृति का संबंध ही बंध : जैन दर्शन एवं सांख्य दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि बंध,