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आगम साहित्य में आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान)
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जैनाचार्यों ने जिनागम का अनुसरण करते हुए आयुर्वेद को जीवन विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान के रूप में विकसित किया, जिसे आगमिक भाषा में प्राणावाय या प्राणायु अथवा प्राणावाद संज्ञा से प्रतिपादित किया । यद्यपि वर्तमान में प्राणावाय पर आधारित एक मात्र ग्रंथ कल्याणकारक ही दृष्टिगत है, जिसमें सर्वांग पूर्ण प्राणावाय (जीवन विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान) का वर्णन किया गया है। इस प्रकार का अन्य कोई ग्रंथ अद्यावधि प्रकाश में नहीं आया है। तथापि श्वेताम्बरानुमत मूल आगम वाङ्मय और उसके व्याख्या साहित्य (निर्युक्ति भाष्य, चूर्णि और टीका) में चिकित्सा एवं आयुर्वेद सम्बन्धी विपुल सामग्री दृष्टिगत होती है। (स्थानांग सूत्र, 9.6.78 तथा सूत्रकृतांग 22 / 30 )
स्थानांग सूत्र में चिकित्सा (तेगिच्छ, चैकित्स्य) को नौ पापश्रुतों में परिगणित किया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह था कि आगम निर्देश और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार आगमों और तदन्तर्गत - दृष्टिवादांग एवं पूर्वों का अध्ययन मुनियों तक ही सीमित था तथा जनता को रोग मुक्त करने की दृष्टि से जन सामान्य में चिकित्साभ्यास करने की अनुमति मुनियों को नहीं थी। आगम में नौ प्रकार की लौकिक शिक्षाएं बतलाई गई हैं जिनमें चिकित्सा विज्ञान का भी समावेश है। उन नौ लौकिक शिक्षाओं को पाप श्रुत माना गया है जो निम्न हैं.
:
1. उत्पात - रूधिर की वृष्टि आदि अथवा राष्ट्रोत्पात का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र ।
2. निमित्त - अतीत काल के ज्ञान का परिचायक शास्त्र ।
3. मंत्र शास्त्र
4. आख्यायिका (आइक्खिया) - मातंगी विद्या जिससे चाण्डालिनी भूतकाल की बातें बतलाती हैं। 5. चिकित्सा
6. लेख आदि 62 कलाएं
7. आवरण (वास्तु विद्या)
8. अष्ठाण ( अज्ञान ) - भारत, काव्य, नाटक आदि लौकिक श्रुत।
9. मिच्छापवयण ( मिथ्या प्रवचन )
निशीय चूर्णि में उपलब्ध विवरण के अनुसार धन्वन्तरि इस विद्या के मूल प्रवर्तक थे उन्होंने अपने निरन्तर | 'ज्ञान से रोगों एवं चिकित्सा का ज्ञानर्जन कर वैद्यक शास्त्र या आयुर्वेद का प्रणयन किया (निशीय चूर्णि । 5पृ. 592) यह कथन अपारम्परिक एवं वस्तुस्थिति से भिन्न प्रतीत होता है। साथ ही यह क्षपकवत् लगता है।
आगम ग्रंथो में चिकित्सा सम्बन्धी प्रकीर्ण विषयों का जो उल्लेख मिलता है उसके अन्तर्गत वैद्य या वैद्यक शुद्ध । चिकित्सा या चिकित्सकों के विज्ञान का निर्देश करते हुए यह संकेत करता है कि शिक्षा की इस शाखा में दक्षता (विशेषज्ञता) वाली वे समस्त शाखाएं निहित हैं जिनमें वैदिक (आध्यात्मिक) रोगों का उल्लेख या प्रतिपादन किया गया है। (कल्याण कारक प्रस्तावना) यह प्राणावाय के सर्वोपरि महत्त्व का भी संकेत करता है।
आगम ग्रंथों के अनुसार प्राणावाय का तात्पर्य सामान्यतः जीवन विज्ञान एवं दीर्घायु है । अतः यह शिक्षा की एक सम्पन्न एवं संस्कारित शाखा है। फिर भी इस शाखा का समावेश नौ पापश्रुतों में कर इसकी निम्नता को । प्रदर्शित किया गया है। यह निश्चय ही शोध का विषय है। इसका कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि इसमें चिकित्सा के अंग के रूप में पैशाची (भूति कर्म) विद्या और विषय चिकित्सा का भी समावेश है। इसके अतिरिक्त पूर्वकाल में संसार में दीर्घायु का प्रतिपादन करनेवाले सामान्य धर्म ग्रंथ को उत्तर काल में आध्यात्मवादियों द्वारा 1