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आचरण का वर्णन मुनि का अवर्णवाद या निन्दा नहीं है, वह तो ठग या नट के स्वरूप का निरूपण है। मुनिवेशधारी ठग को मुनि न कहना और ठग कहना तो यथार्थ कथन है। आगम में यथार्थ कथन को अवर्णवाद नहीं कहा गया है। यदि इस यथार्थ कथन को अवर्णवाद या निन्दा कहा जाय, तो भी यह मुनि - अवर्णवाद या मुनिनिन्दा नहीं है, अपितु टग-अवर्णवाद अथवा ठगनिन्दा है। मुनिवेशधारी ठगों से अपनी आँखों में धूल न झुकवाने एवं दूसरों को इससे बचाने के प्रयत्न को मुनिनिन्दा कहकर रोकनेवाले लोग जिनशासन के मित्र नहीं, शत्रु हैं, उसके रक्षक नहीं विनाशक हैं।
डॉ. शेखरचन्द्र जैन ने भेंट - पुरस्कारहानि, मानापमान एवं प्राणसंकट की परवाह किये बिना समाज के विविध वर्गों में व्याप्त धर्म विरुद्ध एवं पदविरुद्ध आचरण का खुलकर उद्घाटन किया है और जिनशासन को विकृति से बचाने की कोशिश की है तथा कर रहे हैं।
हमारे गुरू अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता होते हैं। अतः उनका सब प्रकार से निर्दोष होना आवश्यक है। यदि वे सदोष हुए, तो उनसे श्रावकों को सदोष आचरण की ही शिक्षा मिल सकती है, जो मोक्ष का साधक नहीं हो सकता। शिष्य मायाचारी गुरू से मायाचार ही सीख सकते हैं। 'यथा राजा तथा प्रजा' की उक्ति 'यथा गुरुस्तथा शिष्यः' के अर्थ को भी द्योतित करती है।
खेद है कि आज मुनिपद का सर्वाधिक हास हुआ है। डॉ. शेखरचन्द्रजी का मन इस बीभत्स मुनिदशा से बहुत आहत है। उन्होंने यह मनोदशा अपने सम्पाकीयों में बहुशः व्यक्त की है। वे अप्रैल २००४ की 'तीर्थंकर वाणी' के सम्पादकीय 'महावीर के नाम एक पत्र' में लिखते हैं
"हे अतिवीर ! हमारा साधु अपने दैनिक आचरण में भी गिर रहा है। वह दाढ़ी बनाने लगा है, ब्रश करने लगा / है । फ्लश लैट्रिन में जाने लगा है। फोन - मोबाइल उसकी आवश्यकता बन गयी है ।"
" हे नाथ! यदि कुछ समझदार श्रावकगण उन्हें विनय से उपगूहन व स्थितीकरण हेतु समझाते हैं, तो वे व उनके चमचे ऐसे श्रावकों व विद्वानों को मुनिविरोधी कहकर बहिष्कार करवाते हैं या फिर बिहारवाली भी करवाने में नहीं चूकते।"
इस प्रसंग में डॉ. शेखरचन्द्रजी ने स्वयं पण्डित होते हुए भी आज के अधिकांश पण्डितों की धनलोभ के कारण सत्यकथन से हिचकिचाने की मनोवृत्ति को उजागर करने में संकोच नहीं किया। वे लिखते हैं
"हे प्रभु! हम पण्डित - विद्वान् - पत्रकार भी पैसों की लालच, इनाम - इकराम की लालस से सत्य बोलने में ! हिचकिचाने लगे हैं। हम भी बैण्डवालों की तरह किसी भी खेमे का बैण्ड बजा रहे हैं। हम इस शिथिलाचार के विरुद्ध कुछ नहीं कर रहे हैं। यह क्या हमारा पतन नहीं है ? ('तीर्थंकर वाणी ' / अप्रैल २००४ / पृ. ४) ।
फरवरी २००३ की 'तीर्थंकर वाणी' के सम्पादकीय में डॉ. शेखरचन्द्रजी ने लिखा है
"कुछ मुनि तो इतने शरमप्रूफ हो गये हैं कि अभक्ष्य का सेवन करते हैं। यदि उन्हें परोक्षरूप से भी रोका जाता है, तो वे भरी सभा में कहते हैं- 'हाँ में आइस्क्रीम खाता हूँ.... खूब खाऊँगा । जिससे जो बने, मेरा कर ले।' उनकी भाषा तो देखिए- 'हाँ मैं खाता हूँ, जो मेरी टीका करेगा, वह नरक में जायेगा, दुःखसहन करेगा। मैं तो ! नंगा हूँ, मेरा क्या तोड़ लोग ? नंगे से खुदा भी डरता है।' ऐसा अनर्गल प्रलाप किया कथित स्वयंभू आचार्य ! कुमुदनन्दी ने शिवानन्द की सभा में ।”