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इसी संदर्भ में जैन पुराणों में कहा गया है कि परलोक के जीवन को सुखी बनाने के लिए भी मानव को कामक्रोध, मद, मोह, लोभ-क्षोभ आदि विकारी भावों से बचकर इनका नाश करके दया, क्षमा, निरभिमानता, सरलता, निर्लोभता, सत्य, शौच, संयम आदि धर्मो का पालन करना चाहिए, अन्यथा भविष्य में भी भव-भव में चार गति, चौरासी लाख योनियों में भटकना होगा ।
मानवीय मूल्यों का तात्पर्य मानव के उन उच्च एवं आदर्श गुणों से हैं, जिनका अनुकरण करने से मानवों का गौरव बढ़ता है, घर में, समाज में, राष्ट्र में सम्मान बढ़ता है, प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ऐसे मानवीय मूल्यों के धारक व्यक्ति के हृदय में स्वाभिमान और आत्म विश्वास पैदा होता है, उसकी सुषुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं। फिर वह बड़े-से-बड़े कार्य करने में सक्षम हो जाता है।
जैन पुराण ऐसे मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी तो हैं ही, और भी बहुत कुछ है उन पुराणों में, उनके अध्ययन, मनन, चिन्तन से यह आत्मा-परमात्मा बनने का पथ भी प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति एक बार भी जैन पुराणों को श्रद्धा से पढ़ता है, उसके जीवन में कथानायकों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर उन जैसा बनने का भाव जागृत हुए बिना नही रहता । वह यथाशक्ति वैसा ही बनने का प्रयास करने लगता है।
जैनपुराणों की मूलकथा वस्तु 169 पुण्य पुरुषों एवं 63 शलाका पुरुषों के आदर्श जीवन दर्शन पर आधारित होती है। 63 शलाका पुरुषो में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 ! बलभद्र होते हैं तथा 169 पुण्य पुरुषों में 24 तीर्थंकर, 24 तीर्थंकर के 24 पिता, 24 मातायें, 24 कामदेव, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 बलभद्र, 9 नारद, 11 रुद्र, 12 चक्रवर्ती एवं 14 कुलकर होते हैं।
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महापुरुषों के चरित और पुराणों के पठन-पाठन से जीवन को उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा प्राप्त होती है, संकट में मानवों को धैर्य प्राप्त होता है। ऐसे अशुभ आर्त और रौद्र ध्यान नहीं होते, जिनसे तीव्र पाप बन्ध होता है। जिनसेनाचार्य कहते हैं कि- "देखो, धर्म तो उस वृक्षरूप है, जिसका फल अर्थ और काम पुरुषार्थ है। धर्म, ! अर्थ और काम- इस त्रिवर्ग पुरुषार्थ का मूल कारण पुण्य पुरुषों की कथायें सुनना है। मूल श्लोक इस प्रकार है:पश्य धर्म तरोरर्थः फलं कामस्तु तव्रसः ।
सत्रिवर्ग त्रयस्यास्य मूलं पुण्यं कथा श्रुति ॥ 1-31
इन पुण्य कथाओं में महापुरुषों के द्वारा न्यायनीति पूर्वक अर्थ और काम पुरुषार्थ का आचरण करते हुए धर्म । करने का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। पाठक इन्हें पढ़कर अपने मानवीय मूल्यों का विकास करते हैं। इस प्रकार जैन पुराणों को मानवीय मूल्यों का सजग प्रहरी कहना उचित ही है।
आचार्यों ने महापुरुषों अर्थात् पुराण पुरुषों का स्वरूप निर्धारित करते हुए कहा है कि - " जो पुरुष वासनाओं, विकारों, कषायों आदि के दास न बनकर स्वावलम्बी होकर अपने रत्नत्रयधर्म को उज्ज्वल बनाते हुए आत्मविकास के क्षेत्र में वर्द्धमान होते हैं, उन जितेन्द्रिय मनस्वी मानवों को महापुरुष कहते हैं।"
जैनपुराणों के कथानायक उपर्युक्त पुण्य पुरुष ही हैं, परन्तु इनके साथ ऐसी बहुत सी उपकथायें भी होती हैं जो बीच-बीच में इन्हीं पुराण पुरुषों के परिवारजनों से सम्बन्धित होती हैं तथा इनके पूर्वभवों से सम्बन्धित होती है, जिनमें इन्हीं पुराण पुरुषों के पूर्वभवों में अज्ञान और कषाय चक्र से हुए पुण्य-पाप के फल के अनुसार उनके चरित्रों का चित्रण होता है, जहाँ बताया जाता है कि इन तीर्थंकर जैसे पुराण पुरुषों से भी यदि पूर्वभवों में जानेअनजाने भूलें हुई हैं तो उन्हें भी सागरों पर्यंत चतुर्गति के भयंकर दुःखों को भोगना ही पड़ा है। उदाहरणार्थ भगवान महावीर ने मारीचि के भव में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के विरुद्ध मिथ्या मत का प्रचार किया और स्वयं