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गीति-मुक्तकों की आधारशिला आमुष्मिकता थी। परन्तु, 'गाथासप्तशती' की रचना के बाद उनमें भावतः
और विधानतः भी रुचिर परिष्कार हुआ। ___ गाहासत्तसई (गाथासप्तशती)
'गाथासप्तशती' प्राकृत-गीतिमुक्तकों का मनोरम संग्रह है। 'ध्वन्यालोक' की 'लोचन' टीका के कर्ता के अनुसार, 'मुक्तक अन्य से असम्बद्ध एवं स्वतन्त्र निराकांक्ष अर्थ की परिसमाप्ति के गुणों से युक्त प्रबन्ध के बीच की वस्तु होता है।' 'गाथासप्तशती' की प्रत्येक गाथा मुक्तक के उक्त लक्षण से युक्त श्रृंगार-रसवर्षी होने के कारण प्रबन्धशतायमान है। 'गाथासप्तशती' काव्यग्रन्थों में बहुतों से पुरानी है। आज से दो हजार वर्ष से भी अधिक पहले इसकी रचना हुई थी। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन के अनुसार, इस प्राकृत-मुक्तक-संग्रह के कर्ता सातवाहन हाल का समय ईसवी-सन् 69 निश्चित किया गया है। इस गीतिमुक्तक-काव्य में प्राकृत के प्रतिनिधि कवियों और कवयित्रियों की चुनी-चुनाई सात सौ गाथाओं का संकलन है, जो इसकी आख्या को अन्वर्थ करता है। ___ शृंगार रस की प्रधानता के कारण 'गाथासप्तशती' में रूप-सौन्दर्य, हाव-भाव, विलास-बिब्बोक, चेष्टा
और क्रियाओं के बिम्बात्मक चित्र उपस्थित किये गये हैं। श्रृंगार के सहज आधार नायक-नायिकाओं के वर्णनविनियोग के प्रसंग में साध्वी, कलटा, पतिव्रता. वेश्या. स्वकीया, परकीया. पंश्चली. स्वैरणी आदि जितनी | प्रकार की नायिकाओं की प्रतिच्छवियाँ उभरी हैं, उतनी की प्रतिच्छाया भानुदत्त की 'रसमंजरी में भी नहीं मिलती। 'गाथासप्तशती' सही अर्थ में रसमुक्तक-गीतिकाव्य है। यह अपनी रसात्मक रम्यता से सहृदय के हृदय को चमत्कृत करने की अपूर्व क्षमता रखती है। इसमें रमणीय दृश्यों एवं मनोहारी परिस्थितियों को मोहक आकल्पन के साथ प्रस्तुत किया गया है। चमत्कारी अर्थ से परिपूर्ण इसकी प्रत्येक गाथा (श्लोक) दण्डी की । मुक्तक-परिभाषा 'मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्' को अक्षरशः अन्वर्थ करता है।
इस काव्य की प्रत्येक गाथा-गीति अपने-आपमें स्वतन्त्र एवं आमुष्मिकता की चिन्ता से मुक्त है। मुक्त चिन्तन में ही इसका शिल्प-कौशल, अभिव्यक्ति-सामर्थ्य एवं मर्म-व्यंजना का निखार परिलक्षित होता है। इसमें जहाँ ग्राम्य जीवन का रुचि-निर्माण है, वहीं रुचि-संस्कार भी। सभी गाथाएँ तत्कालीन विभिन्न सामाजिक अवस्थाओं के ऐसे स्रोत हैं, जिनमें शाब्दिक इन्द्रजाल एवं आलंकारिक चमत्कार से युक्त जीवन-संगीत की शाश्वत लहर उद्वेलित रहती है। 'गाथा' जैसे छोटे छन्द में प्रसंगों का समस्त आकलन एवं भावों और अनुभावों का बिम्बात्मक निरूपण सांकेतिक पद्धति से ही हुआ है; किन्तु इससे कवि की सामासिक शक्ति और संघटनात्मक संरचना के विस्मयकारी सामर्थ्य का पता चलता है। कवि की एक उत्प्रेक्षा में भाव की विपुलता एवं महाशयता द्रष्टव्य है :
रेहंति कुमुअदलणिच्चलडिआ मत्तमहुअरणिहाआ।
ससिअरणीसेसपणासिअस्स गांठिम्ब तिमिरस्त॥ (गाथा : 561) इस गाथा में, कुमुद-दलों पर निश्चल भाव से बैठे काले भौरे अन्धकार की गाँठों की तरह लगते हैं, यह कहा गया है। भौरे की 'अन्धकार की गाँठ' से उत्प्रेक्षा चकित करनेवाली है। प्रेम की रसमाधुरी में तदात्म करनेवाला एक अपूर्व प्रसंग :
परिणीए महाणसकम्मलग्गमसिमलिएण हत्येण। छित्तं मुहं हसिज्जइ चन्दावत्थं ग पइणा॥ (गाथा : 13)
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