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म तियों के वातायन | वर्णन की अभिनव भंगिमाएँ तो दी ही हैं, ग्रन्थ का विभाजन भी तथाप्रथित सर्गों या परिच्छेदों में न करके
'कुलकों' में किया है। सर्वाधिक बृहत् कुलक 150 आर्याओं का है और सबसे छोटा कुलक पाँच आर्याओं का। प्राकृतिक वैभव, अलंकृत सुन्दर पद-विन्यास, उत्प्रेक्षाओं का अतिनूतन संयोजन आदि काव्यगुणों के उत्कर्ष से, निस्सन्देह, यह काव्य अतिशय श्लाघ्य एवं उदात्त बन गया है। और, अपनी उदात्त एवं अलंकृत शैली के कारण
ही इस काव्य ने शास्त्रीय महाकाव्य की गरिमा आयत्त कर ली है। इस प्रसंग में शिव के मस्तक पर विराजित । चन्द्रमा के निमित्त कविराज वाक्पत्ति की पैनी सूझ-बूझ की एक झाँकी द्रष्टव्य है :
तं णमह कामणेहा अज्जवि धारेइ जो जडाब।
तइअ-णयणग्गि-णिवडय-का-ववसाअं पिव मिअंकं॥ (गाथाः30) । अर्थात् शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को दग्ध कर दिया है। मित्र की दुरवस्था देखकर चन्द्रमा दुःखी । है और स्वयं अपने मित्र के स्नेहवश शिव के तीसरे नेत्र में कूदने को उद्यत है। इस व्यवसाय से रोकने के लिए ही मानों शिवजी ने उसे (चन्द्रमा को अपनी जटाओं से कसकर बाँध रखा है।
कुमारवालचरिय ___ ग्यारहवीं-बारहवीं शती के प्रसिद्ध वैयाकरण जैनाचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित 'कुमारवालचरिय' संस्कृत के समानान्तर अध्ययन के तत्त्व की सम्पन्नता की दृष्टि से प्राकृत के शास्त्रीय महाकाव्यों में अन्यतम स्थान रखता है। इस काव्यकृति का अपर पर्याय 'याश्रय-काव्य' (द्वि + आश्रयकाव्य) भी है। ___ हेमचन्द्र का यह काव्य मूलतः दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में सिद्धहैमव्याकरण के सात अध्यायों में उल्लिखित संस्कृत-व्याकरण के नियमों को विवेचित करने के प्रसंग-माध्यम से सोलंकी-वंश के मूलराज से प्रारम्भ करके जैन-धर्मोपासक कुमारपाल तक के इतिहास का कुल बीस सर्गों में वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् द्वितीय भाग में सिद्धहैमव्याकरण के आठवें अध्याय में उल्लिखित प्राकृत-व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करते हुए राजा कुमारपाल के चरित को कुल आठ सर्गों में वर्णन-वैविध्य के साथ विस्तार दिया गया है। इस प्रकार, इस काव्य के द्वारा दुहरे उद्देश्य की सिद्धि होती है, अर्थात् एक ओर कुमारपाल के चरित्र का वर्णन और दूसरी ओर संस्कृत और प्राकृत के व्याकरण का विश्लेषण। इससे इस काव्यकृति की 'द्वयाश्रय-काव्य' अभिधा अन्वर्थ हो जाती है। संस्कृत-द्वयाश्रय के टीकाकार अभयतिलकगणी और प्राकृत-द्वयाश्रय के टीकाकार पूर्णकलशगणी हैं। ___ 'कुमारपालचरित' महाकाव्य का कथाफलक यद्यपि छोटा है, तथापि तरल भाव-विन्यास, अलंकारसम्पन्नता, शब्द-सम्पत्ति, व्यवस्थित अर्थयोजना, स्वच्छन्द प्रेम की निर्बन्धता, अनुभूति की अन्तरंगता एवं अभिव्यक्ति की सहज मार्मिकता, रस-विदग्धता, भणिति-भंगिमा आदि की दृष्टि से यदि इसे हम ‘प्रबन्धशतायते' कहें, तो अयुक्त नहीं होगा। कालिदास का 'मेघदूत' भी कथाफलक की लघुता के बावजूद अपनी भावनिधि एवं मर्मबोध की तन्मय मूर्च्छना की आन्तरिक व्यापकता के कारण महाकाव्यत्व के गौरव का आस्पद माना जाता है। सच पूछिए तो, हेमचन्द्र के 'कुमारपालचरित' का काव्योत्कर्ष की सिद्धि की दृष्टि से समग्र काव्य-वाङ्मय में क्रोशिशिलात्मक मूल्य है।
प्राकृत-चरितकाव्य
प्राकृत-प्रबन्धकाव्यों में चरितकाव्यों का स्थान महन्महनीय है। प्राकृत में चरितकाव्यों का विपुल विस्तार मिलता है। प्राकृत-साहित्य धार्मिक क्रान्तिमूलक है। अतएव, इसमें आगमविषयक मान्यताओं का गुम्फन असहज नहीं। इसमें लौकिक साहित्य का तत्व निहित है, जो प्रबन्धात्मक काव्य एवं कथा-साहित्य की विकासपरम्परा का आधार है।