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का संकेतक भी है। स्पष्ट है कि प्राकृत - कथाकारों की रचना - प्रतिभा धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में सममति थी। धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना, दार्शनिक प्रभा तथा साहित्यिक विदग्धता के शास्त्रीय समन्वय की मूर्ति प्राकृत के कथाकारों की कथाभूमि एक साथ धर्मोद्घोष से मुखर, दार्शनिक उन्मेष से प्रखर, साहित्यिक | सुषमा से मधुर तथा सांस्कृतिक चेतना से जीवन्त है । इसीलिए, प्राकृत - कथाओं के मूल्य-निर्धारण के निमित्त अभिनव दृष्टि और स्वतन्त्र मानसिकता की अपेक्षा है।
प्राकृत-कथा न केवल धर्मकथा है, न ही कामकथा और न अर्थकथा । इसके अतिरिक्त, प्राकृत-कथा को केवल मोक्षकथा भी नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः, प्राकृत-कथा मिश्रकथा है, जिसमें पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की सिद्धि का उपाय निर्देशित हुआ है। अनुभूतियों की सांगोपांग अभिव्यक्ति मिश्रकथा ही सम्भव है। जीवन की समस्त सम्भावनाओं के विन्यास की दृष्टि से प्राकृत-कथा की द्वितीयता नहीं है। सामान्यतया, प्राकृत-कथाओं की संरचना - शैली का पालि-कथाओं से बहुशः साम्य परिलक्षित होता है। फिर भी, दोनों में उल्लेखनीय अन्तर यह है कि पालि-कथाओं में पात्रों के पूर्वभव-व ध-कथा के मुख्य भाग के रूप में उपन्यस्त हुए हैं; परन्तु प्राकृत-कथाओं में पात्रों के पूर्वभव उपसंहार के रूप में विन्यस्त हुए हैं । पालि-कथाओं या जातक कथाओं में बोधिसत्त्व मुख्य केन्द्रबिन्दु हैं, और उनके कार्यकलाप की परिणति प्रायः उपदेशकथा के रूप में होती है। इस क्रम में किसी एक गाथा को सूत्ररूप में उपस्थापित करके गद्यांश से उसे पल्लवित कर दिया गया है, जिससे कथा की पुष्टि में समरसता या एकरसता का अनुभव होता है। किन्तु, प्राकृत-कथाओं में जातक-कथाओं जैसी एकरसता नहीं है, अपितु घटनाक्रम की विविधता और उसके प्रवाह का समन्वयात्मक आयोजन हुआ है। गहराई और विस्तार प्राकृत-कथाओं की शैली की अपनी विशिष्टता है । प्राकृत-कथा की महत्ता इस बात में निहित है कि इसके रचयिताओं ने हृद्य और लोकप्रिय किस्सा-कहानी एवं साहित्यिक तथा । सांस्कृतिक कलापूर्ण गल्प के बीच मिथ्या प्रतीति के व्यवधान को निरस्त कर दिया है। प्राकृत - कथाकारों ने उच्च और निम्न वर्ग के वैषम्य को भी अपनी कृतियों से दूर कर दिया है। फलतः, इनकी रचनाओं में दोनों वर्गों की विशिष्टताओं का सफल समन्वय हुआ है। दूसरी ओर, जो लोग साहित्यिक अभिनिवेश, सांस्कृतिक चेतना और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मताओं की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें भी प्राकृत-कथाओं से कोई निराशा नहीं हो सकती। यह एक बहुत बड़ी बात है, जो बहुत कम कथा - साहित्य के बारे में कही जा सकती है।
व्यापक और गम्भीर सूक्ष्मेक्षिका से सम्पन्न भारतीयेतर विद्वानों ने भी अपने संरचना - शिल्प में सम्पूर्ण भारतीय परम्परा को समाहत करनेवाली प्राकृत - कथा - वाङ्मय की विशालता पर विपुल आश्चर्य व्यक्त किया है । भारतीय साहित्य के पारगामी अधीती तथा 'ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर' के प्रथितयशा लेखक विण्टरनित्स केवल इसी बात से चकित नहीं हैं कि प्राकृत - कथा - साहित्य में जनसाधारण के वास्तविक जीवन की । झाँकियाँ मिलती हैं, वह तो इसलिए प्रशंसामुखर हैं कि प्राकृत-कथाओं की भाषा में एक ओर यदि जनभाषा की शरीरात्मा प्रतिनिहित है, तो दूसरी ओर वर्ण्य विषय में विभिन्न वर्गों के वास्तविक सांस्कृतिक जीवन का हृदयावर्जक चित्र समग्रता के साथ, मांसल रेखाओं में अंकित है। इसके अतिरिक्त, प्राकृत-कथाकारों की विश्वजनीन अनुभूति का प्रमाण यह भी है कि उनके द्वारा प्रस्तुत अभिव्यक्ति की विलक्षणता, कल्पना की भावनाओं और आवेगों का विश्लेषण तथा मानव - नियति का भ्राजमान चित्रण - ये तमाम तत्त्व विश्व के कथा-साहित्य की विशेषताओं का मूल्य-मान रखते हैं। सबसे अधिक उल्लेख्य तथ्य यह है कि प्राकृतकथा - साहित्य में सुरक्षित स्थापत्य और शिल्प विभिन्न परवर्त्ती भारतीय कथा - साहित्य के आधारादर्श बने ।
प्रवणता,