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एक वातायन स
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प्राकृत-कथा- काव्य में सांस्कृतिक चेतना
साहित्यवाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिवेव प्राचीन संस्कृत-कथाओं की आधारशिला बहुलांशतः दिव्यभूमि पर प्रतिष्ठापित की गई है। किन्तु, ठीक इसकी प्रतिभावना - स्वरूप प्राकृत-कथाओं की रचना-प्रक्रिया में दिव्यादिव्य शक्तियों की समन्विति को प्रमुखता दी गई है। कारण, संस्कृत के कथाकार वेदों और उपनिषदों में प्रतिपादित ईश्वरीय शक्ति की सर्वोपरिता की अवधारणा से आक्रान्त थे; परन्तु इसके विपरीत प्राकृत-कथाकारों ने मानव-शक्ति की सर्वोपरिता को लक्ष्य किया था। इसीलिए, ईश्वरत्व के विनियोग अथवा ईश्वर के कर्तृत्व की अपेक्षा उसके व्यक्तित्व में विपुल विश्वास के प्रति प्राकृत-कथाकारों का आग्रह अधिक सजग रहा। संस्कृत-कथाकार जहाँ केवल अतिलौकिक भावभूमि के पक्षधर बने, वहीं प्राकृतकथाकारों ने लौकिक भावधारा को अतिलौकिक पृष्ठभूमि से जोड़कर मानवतावादी ! दृष्टिकोण का संकेत किया।
प्राकृत और संस्कृत के कथाकारों की सैद्धान्तिक मान्यताओं के उपर्युक्त वैचारिक स्वातन्त्र्य के न केवल साम्प्रदायिक, अपितु अपने-अपने युग का, अर्थात् समसामयिक भाषिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश का प्रभाव भी सक्रिय रहा है, फलतः उन्होंने अपनी-अपनी सांस्कृतिक चेतना और बौद्धिक चिन्तन या मानसिक अवधारणा के अनुकूल भाव - जगत् में संचरण करते हुए यथास्वीकृत पद्धति से कथा-साहित्य को नूतन अभिनिवेश दिया, नई-नई दिशाएँ दीं और उसके नये-नये आयाम निर्धारित किये । किन्तु सामान्य जनजीवन से सम्बद्ध प्राकृत-कथाकारों
ततोऽधिक विकासवादी दृष्टि का परिचय दिया, अर्थात् उन्होंने मानव - नियति को दैवी - नियति से सम्बद्ध न मानकर, लोकभावना को कर्मवाद पर आधृत सामाजिक गतिशीलता की ओर प्रेरित किया; अदिव्य को दिव्य से मिलाकर उसे दिव्याटिव्यत्व प्रदान किया । चिराचरित सार्वभौमतावादी युगधर्म को विकसित कर उसमें लोकजीवन की लोकोत्तरवादी चेतना की व्यापक विनिर्युक्ति प्राकृत-कथाओं की मौलिक विशेषता है, जो अपने साथ, सांस्कृतिक और साहित्यिक समृद्धि की दृष्टि से सारस्वत क्षेत्र के लिए अपूर्व उपलब्धि की गरिमा का संवहन करती है।
वैदिक या ब्राह्मण - परम्परा के संस्कृत - कथा - साहित्य की विविधता और विपुलता