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________________ 1384 तियों के वातावनी | धर्म-दर्शन से सम्बन्ध रखता है, यद्यपि उसका काव्यात्मक एवं सांस्कृतिक महत्त्व भी कम नहीं है। प्राकृतविद्या के स्थान पर प्राकृत अध्ययन पद का प्रयोग करना अधिक व्यापक एवं सार्थक है। अतः देश-विदेश में विगत कुछ । दशकों में प्राकृत अध्ययन की क्या प्रगति हुई है एवं अगले पचास वर्षों में इसके विकास की क्या सम्भ्वनाएं हैं, इसी पर संक्षेप में यहाँ कुछ विचार करना उचित होगा। विगत पचास वर्षों में प्राकृत अध्ययन का जो विवरण विद्वानों के सामने उपस्थित हुआ है, उसे उजागर करने में प्राच्यविद्या सम्मेलन के जैनधर्म एवं प्राकृत सेक्शन का विशेष योगदान है। इसमें सम्मिलित होने वाले विद्वानों ने प्राकृत-अध्ययन को गति प्रदान की है। 1968 से प्राकृत सेमिनार भी यू.जी.सी. के सहयोग से लगातार 5-6 विश्वविद्यालयों में हुए। उनके लेखों ने प्राकृत के महत्व को रेखांकित किया। इसी बीच कुछ विश्वविद्यालयों में जैनधर्म एवं प्राकृत की पीठ एवं विभाग स्थापित हुए। साथ ही पालि एवं संस्कृत विभागों के साथ भी प्राकृत का शिक्षण प्रारम्भ हुआ। वैशाली के प्राकृत शोध संस्थान ने प्राकृत के अध्ययन को कुछ जागृति प्रदान की। कुछ शोध-संस्थानों एवं प्रकाशकों ने प्राकृत के ग्रन्थों को मूल अथवा अनुवाद के साथ प्रकाशित किया। विश्वविद्यालयों में प्राकृत के ग्रन्थों पर शोधकार्य सम्पन्न हुए। इन सब साधनों एवं प्रयत्नों में प्राकृत अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय | के रूप में उभर कर सामने आया है। इस सबका लेखा-जोखा भी विद्वानों ने समय-समय पर प्रस्तुत किया है। ___प्राकृत अध्ययन की इस प्रगति का परिणाम है कि आज जो हमारे देश में जैन विषय की लगभग तीन लाख पाण्डुलिपियां ग्रन्थभण्डारों में सुरक्षित होने का अनुमान है, उनमें से पचास हजार के लगभग पाण्डुलिपियां प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों की हैं। एक ग्रन्थ की विभिन्न पाण्डुलिपियां पायी जाती हैं। फिर भी यदि सूचीकरण किया जाय तो लगभग 600 प्राकृत के एवं 200 अपभ्रंश के कवि/लेखक/आचार्य अब तक हुए हैं, जिनकी लगभग दो हजार कृतियां (मूलग्रन्थ) ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध हैं। इनमें से प्राकृत के अभी तक लगभग 300 ! ग्रन्थ एवं अपभ्रंश के 65-70 ग्रन्थ ही सम्पादित होकर प्रकाश में आये हैं। लगभग पिछली पूरी शताब्दी के दिग्गज विद्वानों के प्रयत्नों से जब प्राकृत का अध्ययन इतना हो पाया है, तो शेष ग्रन्थों को प्रकाश में लाने हेतु 21वीं शताब्दी का समय पर्याप्त नहीं है। पांडलिपियों के सर्वेषण. सची-करण और सम्पादन के कार्य में लगने वाले विद्वानों का अभाव ही हो रहा है, प्रादुर्भाव नहीं। ऐसी स्थिति में अब पूरे देश में प्रतिवर्ष प्राकृत-अपभ्रंश के नये सम्पादित ग्रन्थों के निर्माण और प्रकाशन की संख्या पाँच से ऊपर नहीं है। यह स्थिति प्राकृत के प्रेमी, विद्वानों, प्रकाशकों एवं समाज-नेताओं को आत्म-निरीक्षण की ओर प्रेरित करे यही भावना है। ____ भारत के विश्वविद्यालयों में जो जैनविद्या पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत हुए हैं, उनकी संख्या लगभग 1250 तक पहुँच गयी हैं। इनमें प्राकृत के लगभग 150 शोध-प्रबन्ध हैं एवं अपभ्रंश के 60। इन शताधिक शोधग्रन्थों में से अभी पचास प्रतिशत भी प्रकाश में नहीं आ पाये हैं। विदेशों में जैनविद्या की जो लगभग 130 थीसिस प्रस्तुत हुई हैं, उनमें लगभग 50 प्राकृत-अपभ्रंश की हैं और फ्रेंच एवं जर्मन आदि भाषाओं में उनमें से 25 शोध-प्रबन्ध प्रकाशित भी हो गये हैं। किन्तु उनका उपयोग भारतीय जैन विद्वानों के लिए करना असम्भव सा है। क्योंकि फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी आदि में कार्य करने और उसका उपयोग करने की सुविधा यहां बहुत कम है। प्राकृत साहित्य में से अर्धमागधी आगम साहित्य के 45 ग्रन्थ, उनकी टीका साहित्य के लगभग 25 ग्रन्थ, शौरसेनी आगम-परम्परा और आचार्यो के 50-55 ग्रन्थ, प्राकृत के 8 महाकाव्य, 5 खण्डकाव्य, 22
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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