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बन्देलखण्ड का जैन कला-वैभव
353 सकल विश्व का साक्षात् ज्ञान जिन्हें प्राप्त है, उन गुणों की उपलब्धिके लिये में उनकी वन्दना करता हूं।
परम स्वाधीन और आत्माश्रित होते हुये भी यह साधना प्रारम्भिक अवस्था में उतनी स्वावलंबी नहीं होती। साधक को आदर्श रूप में अपनी आराध्य की प्रतिकृति का अवलंबन लेना अनिवार्य होता है। उसे मार्ग-दर्शन । के लिये गुरु का भी सहारा लेना पड़ता है। धर्म के सर्वोच्च प्रवक्ता के रूप में देव की पूजा-उपासना और देव की
वाणी का अध्ययन-मनन उसकी आचार संहिता के अनिवार्य अंग होते हैं। ___ निर्विकार ईश्वर अथवा अरिहन्त देव के रूप में पूजा-उपासना के लिये जैनों में चौबीस तीर्थंकरों की सुन्दर
और मनोज्ञ मूर्तियाँ बनाकर उन्हें प्रशान्त गुफाओं-कन्दराओं में उकेरने या सुन्दर मन्दिरों में प्रतिष्ठित करने की परम्परा इसी साधना-पद्धति का अंग है। महावीर के मार्ग में यह स्वीकार किया गया है कि कला और सौन्दर्यबोध उस दिव्यत्व की प्राप्ति का, तथा अपने में एकाकार हो जाने का पवित्रतम साधन है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि धर्म के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि में कलाबोध की आवश्यकता, सिद्धान्त-बोध से किसी प्रकार कम नहीं है। संभवतः यही कारण है कि जैनों ने सदैव धर्म के संदर्भ में ललित-कलाओं के विभिन्न अभिप्रायों और शैलियों को प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया। धर्म की अनुगामिनी रहते हुये उन कलाओं ने साधना की कठोरता को मृदुल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जलती ज्वाला के बीच खिले हुये फूल की तरह वे कलाएं मनुष्य के लिये सांसारिक संतापों के बीच शीतलता प्रदान करती रहीं। काल के बंधनों को अस्वीकार करके कला ने ही धर्म के कल्याणकारी संवादों का संवहन किया है। धर्म केभावनात्मक, भक्ति-परक एवं लोकप्रिय रूपों के पल्लवन में भी कला और स्थापत्य की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसीलिये जैन निर्माताओं ने मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण में सदा सर्वाधिक पुरुषार्थ किया तथा उसके लिये सम्पत्ति श्रम तथा अन्य साधनों की कोई कमी नहीं होने दी।
जैन प्रतिमाओं की बिम्ब-संयोजना,
जैन साधना-पद्धति के इस मूल अभिप्राय को ध्यान में रखकर जब जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं का दर्शन करते हैं तब हम पाते हैं कि ये मूर्तियाँ उन महानसाधकों की अनुकृतियाँ हैं जो अपने लौकिक विकारों से मुक्त होकर लोकाग्र में सर्वोच्च स्थान पर स्थित हो चुके हैं। संसार में परिभ्रमण कराने वाले उनके राग-द्वेषादि समस्त विकार निश्शेष हो चुके हैं अतः अब इस बात की कोई आशंका, या सम्भावना नहीं है कि उस सर्वोच्च स्थान से स्खलित होकर उन्हें कभी मानवीय दुर्वलताओं से भरे इस तिमिराच्छन्न वातावरण में पुनः अवतरित होना पड़ेगा। तीर्थसेतु के वे कर्ता अब विश्व की घटनाओं से सर्वथा निर्लिप्त हैं। वे सर्वज्ञ, अतीन्द्रिय, निश्चल निष्कर्म और शाश्वत शान्त हैं। वे कोई ऐसे देवता नहीं हैं जिन्हें तुष्ट या रुष्ट किया जा सके। वे तो हमारे लिये ऐसे आदर्श मात्र हैं जैसा उनके पदचिन्हों पर चलकर हमें स्वयं भी बनना है। स्वाभावतः जैन-कला की विषय वस्तु अपनी इसी मौलिक । दार्शनिक भावना से ओतःप्रोत है।
अलौकिक साधना के समर्थ उदाहरण
जैन कला के भण्डारों में प्रायः तीर्थंकरों की मूर्तियां ही अधिक मिलती हैं, अतः यह कहा जाता है कि प्रायः एक सा और अलंकरणःविहीन कार्य होने के कारण उन कलाकारों को अपनी प्रतिभा के चमत्कार दिखाने का बहुत कम अवसर मिल पाया। पर ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इनमें से ही अनेक मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर बहुत प्रभावक और समकालीन कृतियों की तुलना में अद्वितीय हैं।
कुण्डलपुर में बड़े बाबा की विशाल और विख्यात प्रतिमा इसका सशक्त उदाहरण है। अहार, खजुराहो और ।