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म तियों के बावापन में। __प्रदेश बंध और प्रकृति बंध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं। केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बंध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाले रेत कण के समान होता है। कषाय रहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबंध निर्बल, अस्थायी और नाममात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता। योगों के साथ कषाय की प्रवृत्ति होने पर बंध में बल और स्थायित्व आ जाता हैं।
(ग) स्थिति बंध :- योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक आत्मा से पृथक न होने की कालमर्यादा कर्म में निर्मित होती है। यह कालमर्यादा आगम की भाषा में स्थिति बंध है। वह स्थिति दो प्रकार की बताई गई है- जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति। जैन कर्म विज्ञान ने कर्म की आटों मूल प्रकृतियों तथा उत्तर प्रकतियों का जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरुपण किया है। जब तक कर्म उदय में नहीं आता तब तक वह जीव को बाधा नहीं पहुंचाता है। इस काल को 'अबाधाकाल' कहते हैं। इस काल में कर्म सत्ता में पड़ा रहता है और अंत में वह कर्म शरीर से अलग हो जाता है।
(घ) अनुभाग (रस) बंध :- जीव के द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र मन्द आदि विपाक अनभाग बंध है। कर्म के शभ या अशभ फल की तीव्रता या मन्दता रस है। उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मंद होगा, यह कर्म बंध के समय ही नियत हो जाता है। वह जैसा भी तीव्र, मध्यम या मंद होता है. कर्म बंध के उत्तर काल में तदनरूप फलयोग प्राप्त होता है। तीव्र और मंद रस के भी कषाययक्त लेश्या के कारण असंख्य प्रकार हो सकते हैं। स्थिति बंध और अनुभाग बंध का मूल कारण कषाय है।
3. अध्यवसाय और लेश्या तंत्र __ हमारी चेतना के अनेक स्तर हैं। उनमें सबसे स्थूल स्तर है इन्द्रिय। उससे सूक्ष्म है मन। उससे सूक्ष्म है बुद्धि और उससे सूक्ष्म है अध्यवसाय। आत्मा अमूर्त है। शरीर में आत्मा की क्रियाओं की अभिव्यक्ति होती है। यह अभिव्यक्ति सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर दोनों में होती है। तैजस शरीर और कार्मण शरीर को सूक्ष्म शरीर कहा गया है। हम सूक्ष्म शरीर के अभिव्यक्ति तंत्र पर विचार करेंगे। यह तंत्र मुख्यतया स्पंदनों, तरंगों से निर्मित है।
संसारी जीव में आत्मा की चैतन्य शक्ति आवृत्त होती है। आत्म शक्ति के स्पंदन आवरणों से होते हुए सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीरों में प्रकट होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार केन्द्र में एक चेतन आत्मा है। इस केन्द्र की परिधि में अति सूक्ष्म कर्म शरीर द्वारा निर्मित कषाय का वलय है। यद्यपि चेतन तत्त्व शासक के स्थान पर है, फिर भी कषायतंत्र इतना शक्तिशाली है कि इसकी इच्छा के बिना शासक कुछ नहीं कर सकता। चैतन्य की प्रवृत्ति स्पंदन के रूप में होती है। इन्हें बाहर निकलने के लिए कषाय वलय को पार करना पड़ता है। पार करने पर आत्मा के स्पंदन कषाय रंजित हो जाते हैं जिन्हें अध्यवसाय कहा जाता है। अर्थात् कर्म शरीर रूपी कषायतंत्र से बाहर आने वाले स्पंदनों में कषाय के गुण आ जाते हैं। कषायतंत्र कितना भी शक्तिशाली हो, फिर भी आत्मा में वह शक्ति है जिसका प्रयोग कर वह कषाय का विलय कर सकता है। इस स्थिति में यद्यपि कषाय का तंत्र समाप्त नहीं होता है फिर भी इसकी सक्रियता कम हो जायेगी और प्रभाव क्षीण हो जायेगा। परिणामस्वरूप जो अध्यवसाय बाहर आयेंगे वे मंगलरूप और कल्याणकारी होंगे। ऐसा तभी होता है जब आत्म चेतना जागृत हो गई हो।
मन मनुष्य या अन्य विकसित प्राणियों में ही होता है। किन्तु अध्यवसाय सब प्राणियों में होता है। अध्यवसाय हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत है। अध्यवसाय के स्पंदन अनेक दिशाओं में आगे बढ़ते हैं। इनकी एक धारा तैजस शरीर के साथ-साथ सक्रिय होकर आगे बढ़ती है तो लेश्या तंत्र बन जाता है। लेश्या के रूप में अध्यवसाय की यह धारा रंग से प्रभावित होती है और रंग के साथ जुड़कर भावों का निर्माण करती है। जितने भी अच्छे या बुरे भाव हैं. वे सारे इसके द्वारा ही निर्मित हैं। अध्यवसाय के स्पंदन आगे बढ़ कर सीधे स्थल शरीर में भी उतरते हैं।