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________________ 344 सरियाक ! बन गया है। इसके सूक्ष्म परिज्ञान एवं उपयोग से हमारी दीर्घजीविता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। तंडुल वैचारिक में तो इसका भी परिकलन दिया गया है कि एक सामान्य व्यक्ति सौ वर्ष में कितना अन्न खा सकता है। औषधि विज्ञान यह बताया गया है कि रसायन विज्ञान का विकास औषधि विज्ञान से ही हुआ है। वस्तुतः तो आहार को भी औषधि ही माना जाता है। जैनों के प्राणावाय पूर्व में इस विज्ञान की भिन्न शाखाओं का वर्णन है । औषधि शास्त्र आठ प्रमुख अंगों में बाल चिकित्सा, काय चिकित्सा, विष - शास्त्र एवं दीर्घजीविता मुख्यतः रसायन से संबंधित हैं। इनके अंतर्गत शास्त्र वर्णित 64 रोगों का 29 भौतिक विधियों तथा अनेक प्राकृतिक पदार्थो के माध्यम से उपचार किया जाता है। ये सभी पदार्थ रासायनिक यौगिक और उनके मिश्रण हैं। अनेक प्राकृतिक पदार्थों के क्वथन, आसवन, ऊर्ध्वपातन आदि से निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। अनेक प्रकार के मिश्रण (त्रिफल आदि) तैयार किये जाते हैं। औषधि विज्ञान में प्रयुक्त अनेक विधियां आज के रसायन विज्ञान का प्रमुख अंग बनी हुई हैं। इसी प्रकार विष विज्ञान के अंतर्गत जंगम एवं पादप विषों का वर्णन हैं। दीर्घजीविता के अंतर्गत ऐसे औषधि रसायन बनाये जाते हैं जो वृद्धावस्था को विलंबित करें और बल-वीर्य को बढ़ाते रहें । औषधि रसायन अनेक संदर्भ भिन्न-भिन्न शास्त्रों में आते हैं। 9वीं सदी के उग्रादित्याचार्य ने इन्हें कल्याणकारक के रूप में प्रस्तुत किया है । वस्तुतः इस ग्रंथ को अहिंसक औषधों का रसायन कहना चाहिये। 27 औषधि विज्ञान में औषधों का प्रभाव शरीर तंत्र में विद्यमान अनेक रसायनों में होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं का ही फल है। इसी प्रकार कृषि विज्ञान पादप विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में भी रसायन का भारी उपयोग है। शास्त्रों में इनका स्थूल वर्णन ही मिलता है। उपसंहार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि आगम युग से लेकर तेरहवीं सदी तक के जैनों ने रसायन की सैद्धांतिक एवं । प्रायोगिक शाखाओं के न्यूक्लियन तथा विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इस योगदान की विवेचना सम- ! सामयिक दृष्टि से ही मूल्यांकित की जानी चाहिये। इस विवेचन में यह पाया गया है कि नवमी - दसवीं सदी तक का जैन शास्त्रों में वर्णित रसायन विज्ञान अन्य दर्शन- तंत्रों की तुलना में उच्चतर कोटि का रहा है। यह ज्ञान समग्र रसायन के विकास की परम्परा में मील के पत्थर के समान है। यह भी स्पष्ट है कि उपरोक्त कालसीमा में अर्जित ज्ञान प्राकृतिक पदार्थों एवं मानसिक चिंतनों पर आधारित रहा है। पिछली कुछ सदियों में परिवर्तित एवं संश्लेषित पदार्थ भी इसकी सीमा में आये हैं। साथ ही, क्रिया और क्रियाफल के बीच क्रियाविधि संबंधी अंतराल का परिज्ञान भी बढ़ा है और रसायन भी अधिक सूक्ष्मता की ओर बढ़ा है। संदर्भ 1. आचार्य नेमिचंद्र 2. जैन, एन.एल., 3. न्यायाचार्य, महेन्द्रकुमार 4. जैन, एन.एल. 5. फर्ट, वाल्डेमार 6. जैन, एन.एल. 7. मुनि, नथमल गोम्मटसार जीवकाण्ड, राजचन्द्र आश्रम, अगास, 1972साइंटिफिक कन्टेन्टस इन प्राकृत केनन्स, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 1996 पेज VII जैन दर्शन, वर्णी ग्रन्थ माला, वाराणसी 1954 पेज 64 नंदनवन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, 2004 पेज 86 साइंस टुडे एण्ड टुमारो, डेनिस डोबसन, लंदन, 1947 अर्हत् वचन, इन्दौर, 11-3,1999 पेज 33 दशवैकालिक, एक समीक्षात्मक अध्ययन, श्वे. तेरापंथी महासभा, 1
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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