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________________ |333 । श्रद्धापूर्वक ज्ञान के आराधक हैं। वे "तमेव सच्चं निःसंकं यं जिर्णेहि पवेइयं" के आराधक हैं। उन्हें शास्त्रों में पाए जाने वाले अनेक विसंवादी, विरोधी तथा युगानुसार परिवर्धित तत्त्वों के दर्शन के प्रति निरपेक्ष भाव हैं। यहाँ हम कुछ उदाहरण दे रहे हैं : ___(1) एक विद्वान कुंदकुंद के ग्रंथों में 20वीं सदी में अन्वेषित रेडियोएक्टिवता के दर्शन करते हैं। (2) एक अन्य विद्वान "स्निग्ध-रुक्षत्वात् बंधः" के एक वचनी सूत्र का बहुवचनी अर्थ लगाकर रासायनिक बंध की तीन प्रकार की संयोजकता सिद्ध कर पुरस्कार पाते हैं। (3) एक नवीन विद्वान् सर्वज्ञ के लोक का असंख्य, अनंत आदि के रूप में वर्णन गुणात्मक मानते हैं। उसका शास्त्रीय वर्णन आचार्य वाणी है, उसकी प्रामाणिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। यही नही, उनकी मान्यता है कि योजन का मान 8 या 2000 मील के बदले 'प्रकाशवर्ष' के बराबर होना चाहिए और आकाशगंगा को जैनो का जंबूद्वीप मानना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ हम रहते हैं, उसके विषय में सर्वज्ञ या आचार्यों ने मौन साधा। (4) जैनो में 10वीं सदी तक के आचार्यों में अपने चिंतनों और विचारों में युगानुरूपता दिखाई है। उसके अनेक उदाहरण जैन ने अपनी पुस्तक में दिए हैं। नेमिचंद्र शास्त्री के अनुसार, यह युग परंपरापोषकों का है, अतः हम युगानुकूल के बदले स्थितिस्थापकताः को ही वरीयता दे रहे हैं। हमारे शास्त्रो ने वर्तमान परमाणु को | अविभागी अणु माना है। विज्ञान जगत में इसके अनेक घटक पाये गये हैं। पर हम वैज्ञानिकतः विभाजित परमाणु को अणु कहकर अपनी वैज्ञानिकता को ही नकार रहे हैं। यह मनोवृत्ति न केवल वैज्ञानिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होती है, अपितु धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी दिखती है। हमारे पंचकल्याणक, जल यात्रा, पूजा-विधान आदि के कर्म काण्ड अतीत के ही गुण गाते हैं एवं, सम्भवतः वर्तमान संसार को दुःखमय मानकर उससे जूझने के लिए । मनोवैज्ञानिक सांत्वना पाते हैं। आतीतवादियों के विपर्यास में वर्तमानवादी अनुयायी नगण्य हैं और अपने विचार स्वतंत्रता के पुरुषार्थ ही जीवित है। इस कोटि के विद्वान ज्ञान को नदी के समान प्रवाहशील मानते हैं और उसके क्षितिजों में समय-समय पर नये चिंतन जोडते रहते हैं। अतः शास्त्र वर्णित अतीत ज्ञान के स्तर की परीक्षा कर उसे वर्तमानयुगीन ज्ञान विकास की धारा को ऐतिहासिकतः संबंधित कर अपने पुराज्ञान की प्रतिष्ठा को तुलनात्मकतः स्थापित करते है और उसे संवर्धित करते हैं। वे भौतिक जगत के ज्ञान को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की जैन धारणा के अनुसार विकासशील मानते हैं। ये विद्वान भी शास्त्रों को आचार्यवाणी ही मानते हैं। पर उसे आधुनिक दृष्टि से, पूर्वाग्रह या परंपराग्रह से निरप्रेक्ष रहकर परीक्षणीय होने पर ही प्रामाणिकता के पक्ष में हैं। वे पत्र वाक्य की परंपरा के व्यवहारिक पक्ष में है। इनका मत है कि श्रद्धापूर्वक सम्यज्ञान की तुलना में सम्यज्ञान पूर्वक श्रद्धा अधिक बलवती होती है। इसीलिए प्राचीन आगमों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र का क्रम दिया गया है। भौतिक विश्व और रसायन वाल्डेमार केंफर्ट ने बताया है कि विश्व के समस्त वैज्ञानिकों में लगभग दो तिहाई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से , रसायनज्ञ हैं। इससे रसायन की महत्ता और व्यापकता का अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः यह भौतिक एवं । मूर्त और सशरीर विश्व रसायन विज्ञान के मूल मौलिक कणों और उनके समूहों के विविध संयोग, वियोग, विगलन, संगलन तथा सामान्य-विशेष क्रिया-प्रतिक्रियाओं का भण्डार है। प्रारम्भ में यह आहार एवं औषध के रूप में वर्णित था, पर अब यह 12 प्रकार के भौतिक एवं भावात्मक रूपों में रस या आनंद देता है। शास्त्रों में ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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