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5. भाग - भागजाति -47 ये भिन्नें इस स्वरूप की होती हैं
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(+) अथवा (+)
भाग के परिकर्म का कोई चिह्न न होने के कारण इन भिन्नों को हिन्दू गणितज्ञ भागानुबन्ध जाति की भिन्नों के प्रकार लिखते थे
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6. भागमातृ जाति - 48 इसका आशय इस प्रकार के भिन्न से है, जो उपरोक्त स्वरूपों के दो या अधिक प्रकार के भिन्नों के मिश्रण से उत्पन्न होती है। महावीराचार्य जी का कहना है कि ऐसी भिन्नें 26 प्रकार की हो सकती हैं। 19 अतएव उनके अनुसार मिश्र भिन्नों की संख्या इस प्रकार 'C + 5C3 1 + 5c4 + 5cg = 26 है। निष्कर्ष : गणितशास्त्र में भिन्न का अपना विशिष्ट महत्व है। हिन्दू गणित में जैन गणितज्ञों का भिन्न प्रतिपादन की ! दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ऐसे अनेक जैनाचार्य हुए हैं, जिन्होंने भिन्न के स्वरूप पर नवीन विचारात्मक दृष्टिकोण सैद्धान्तिक धरातल पर ही नहीं, अपितु व्यावहारिक स्तर पर स्पष्टतः प्रतिपादित किए हैं। वितत भिन्न का प्रयोग जैनाचार्यों ने सिद्धान्त निरूपण के साथ पाँचवीं या छटवीं शताब्दी में किया है । वितत भिन्न के उद्गम और विकास पर गहन अध्ययन करने के उपरान्त यह ज्ञात होता है कि भारतीय गणित शास्त्र में वितत भिन्न का प्रयोग सैद्धान्तिक रूप में भास्कराचार्य के समय से मिलता है । यों तो आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के गणित -ग्रन्थों में भी इस भिन्न के बीज - सूत्र वर्तमान हैं, परन्तु सिद्धान्त स्थिर रूपमयी विषयात्मकता को सुव्यवस्थित ढंग से उपस्थिति करने तथा उससे परिणाम निकालने की प्रक्रिया उन ग्रन्थों में नहीं है। वस्तुतः 'धवला टीका' में उद्धृत गाथाओं में वितत भिन्न के सिद्धान्त इतने सुव्यवस्थित हैं जितने आज पाश्चात्य गणित का सम्पर्क पाने पर भी स्थिरता प्राप्त न कर सके हैं।
आचार्य महावीर का भारतीय - गणित में अपना विशिष्ट स्थान है। आपने गणित की सब ही विद्याओं पर