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___ 1 मुहूर्त = 61/2 भाग। अतः एक भाग = 2/61 मुहूर्त।
यद्यपि इन ग्रन्थों में भाग की क्रिया के लिए कोई स्पष्ट विधि नहीं बतलाई है, परन्तु फिर भी ऐसा आभास होता है कि भाजक भिन्न के उल्टे से गुणा किया जाता था। आगे चलकर ब्रह्मगुप्त, महावीर और श्रीधर ने भी इसी नियम का पालन किया है। महावीर ने इस नियम को इस प्रकार बतलाया है।35 "भागद्वार के अंश को उसका हर और हर को अंश मानकर वही क्रिया करनी चाहिए जो गुणन के लिए कही गई है।" ____ 'त्रिलोकसार' के टीकाकार पंडित टोडरमल ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है- "भाजक केअंश को हर आर हर को अंश बनाने के बाद गुणा की रीति द्वारा भाग की क्रिया सम्पन्न की जाती है।"
भिन्नों के वर्ग, घन, वर्गमूल और घनमूल- इस सम्बन्ध में पंडित टोडरमल ने लिखा है कि भिन्न के वर्ग, घन, वर्गमूल और घनमूल ज्ञात करने के लिए भिन्न के अंश और हर का क्रमशः वर्ग, घन, वर्गमूल और घनमूल निकालने चाहिए। यथा -* का वर्ग = 2 , इसी प्रकार घन आदि भी निकाले जा सकते हैं।
बड़ी मिन्नों का निकटतम मान- डॉ. बी.बी. दत्त ने अपने निबन्ध 'जैन स्कूल ऑफ मैथामैटिक्स'36 में बतलाया है कि गणित सम्बन्धी जैन साहित्य में एक अन्य प्रकार का निकटतम मान मिलता है और वह है भिन्नों का निकटतम माना। इनका कहना है कि किसी बड़ी संख्या में भिन्न वाले भाग को उसके निकटतम वाले पूर्णांक द्वारा हटा देने से गणना में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता, इसी आधार पर जैन साहित्य में यदि कोई भिन्न :
a2
से अधिक होती है, तो उसको 1 से बदल देते हैं और यदि
से कम है, तो उस भिन्नात्मक मान को बिलकुल ।
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हटा देते हैं। यथा-37 सूर्यप्रज्ञप्ति में- 315089 6301778 को 315089 से कुछ अधिक कहकर व्यक्त
553405 किया है, तथा को 31831462017 को 318315 से कुछ कम कहकर व्यक्त किया है। इसके अतिरिक्त
किसी वृत्त के व्यास में 561 की वृद्धि अथवा हानि करने से परिधि में 1781 का अन्तर आना चाहिए, परन्तु जैनागमों में38 यह अन्तर 18 द्वारा व्यक्त किया जाता है।
वितत भिन्न- ययपि - 2 के तीन मान 12 और 2 शुल्ब सूत्र में उपलब्ध होते हैं, जोकि भिन्न द्वारा सरल करने पर क्रमशः आठवीं, तीसरी और चौथी संस्तुतियाँ हैं। ये मान इस ओर संकेत करते हैं कि शुल्ब सूत्र के लेखक वितत भिन्न से परिचित थे, परन्तु वास्तव में ये मान अन्य किसी विधि द्वारा निकाले गये हैं और अकस्मात् वितत भिन्न की संस्तुतियाँ के मान के समान हो गए हैं। शुल्बकारों को वितत भिन्न का बिलकुल ज्ञान नहीं था।
आर्यभट्ट (499 ई.) ने एक घातीय अनिर्णीत समीकरण को हल करने में वितत भिन्न का प्रयोग किया है। यथा-40