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311 वन्देऽभिवंचं महतामृषीन्द्र।
जिनं जित स्वान्त - कषायवंधः॥36॥ इस स्तोत्र के साथ भी एक चमत्कारिक आख्यायिका संलग्न है। मुनिवर से शिवपिंडी को नमस्कार करने का दुराग्रह किया गया। अपने आराध्य के प्रति अटूट श्रद्धा के कारण उनके लिए यह संभव नहीं था। उन्होंने संकट की इस घड़ी में चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण करते हुए स्वयंभू स्तोत्र की रचना की। स्तोत्र पढ़ते-पढ़ते जैसे वे शिवलिंग को नमस्कार करने को आगे बढ़े शिवपिंडी फट गई और उसके भीतर चन्द्रप्रभु की भव्य प्रतिमा प्रकट हुई। ____उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि दूसरी शताब्दी में आचार्य समन्तभंद्र से प्रारंभ हुई जैन स्तोत्र लेखन की परम्परा 19वीं 20वीं शताब्दी में श्री अक्षुण्ण चली आ रही है। वर्तमान काल में आचार्य विद्यानंद, आचार्य विद्यासागर, मुनि क्षमासागर, मुनि प्रमाण सागर, उपाध्याय ज्ञानसागर आदि मुनिवरों ने संस्कृत एवं हिन्दी में स्तोत्रों की रचना की है। अधुना परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का स्तोत्र साहित्य में अवदान उल्लेखनीय है। उनके द्वारा रचित देव, शास्त्र, गुरुओं की ये स्तुतियाँ न केवल रचनाकर्मी को अपितु श्रद्धालु पाठकों को भी भवसागर को पार करने में तरणि रूप हैं। माताजी द्वारा विरचित स्तोत्रों में 'सुप्रभात स्तोत्र', 'बाहुबलि स्तोत्र' एवं 'कल्याणकल्पतरु स्तोत्र' का विशेष महत्व है। । सुप्रभात स्तोत्र : चौबोल छंद में रचित सुप्रभात स्तोत्र अपनी विशिष्ट शैली में अनायास ही पाठकों का ध्यान | आकर्षित करता है। प्रत्येक श्लोक के अंतिम पाद में माताजी ने 'उत्तिष्ठ भव्य भुवि विस्फुरितं प्रभातं' कहकर
भव्य जनों को प्रभात की प्रकाशमय बेला में जागृत होने का उद्बोधन किया है। आलंकारिक शैली में लिखा गया यह स्तोत्र आकार में लघु होने पर भी अपनी प्रभविष्णुता में अद्वितीय है। एक उदाहरण देखें :
तारागणा अपि विलोक्य विषोः सपक्षं खे निष्प्रभ विमतयोऽपि च यांतिनाशं स्याबावभास्य दुदये त्यज मोह निद्रां .
उत्तिष्ठ भव्य भुवि विस्फुरितं प्रभातं॥5॥ बाहुबलि स्तोत्र : 51 बसन्ततिलका छदों में रचित बाहुबलि स्तोत्र भगवान ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली के चरण कमलों में समर्पित भावप्रवण रचना है। दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के 'श्रवणबेलगोल' स्थान में एक ऊँची पहाड़ी विंध्यगिरि पर स्थित भगवान बाहुबलि की 57 फीट ऊँची भव्य मूर्ति के दर्शन कर माताजी के मनमानस में उत्पन्न हुई भावोर्मियों का यह संकलन जैन साहित्य की अमूल्य धरोहर है। सांसारिक कष्टों से त्रस्त हृदय की भगवान से अपने उद्धार के लिए की गई यह प्रार्थना इतनी कारुणिक है कि पढ़ते पढते आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है।
उद्विज्य घोर भयद्व्यसनाम्बुधेर्मा। दुखाशुपूरनिबहै : कृतवक्त्रसान्द्रं ॥ वीक्ष्यागतं परम कारुणिकस्य तेऽन्तः।
स्वामिन् कथं द्रवति नो कथय त्वमेव॥26॥ माताजी ने इस स्तोत्र का हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत कर इसे जनसाधारण के लिए बोधगम्य बना दिया है। ।
कल्याणकल्पतरू : 'कल्याणकल्पतरू' को यदि माताजी के स्तोत्र साहित्य का मेरूदण्ड कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें 2 12 श्लोकों में जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों का पृथक्-पृथक् भावपूर्ण स्तवन ।