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| किया, किन्तु इसमें वे गुरुत्वाकर्षण निमित्त बल को संयुक्त न कर सके। यदि विचलनीय (variational) के
आधारभूत सिद्धांत (principle) का उपयोग जीव के कर्म के गणितीय स्वरूप पर प्रयुक्त किया जाये तो अनेक प्रकृति के रहस्यों को खोला जा सकता है। अजीव पुद्गल के कर्म के गणितीय स्वरूप को कई प्रकार से परिभाषित कर उसमें इस मूलभूत सिद्धान्त (principle) का उपयोग कर अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर प्रयोग द्वारा सत्यापित करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है। तब इसे जीव के कर्म के गणितीय रूप के सम्बन्ध में क्यों न प्रयुक्त कर वस्तु स्वरूप के चाल वा चलन को गहराई से ज्ञात न किया जाये? उसे विवृत्त (open) और अविवृत्त
(closed) सिस्टम्स (systems) के रूपों में लाया जाकर जीव रूप दिया जाये? अथवा कर्म कषाय गति | प्रकाश से भी अधिक तीव्र गति लेकर आगे बढ़ा जावे?
प्रिंसिपल को हम मूलभूत सिद्धान्त कह सकते हैं तथा थ्योरी (theory) को विकसित सिद्धान्त कह सकते हैं। कर्म सिद्धान्त में हमें पहिले मूलभूत सिद्धान्तों की राशि को देखना होगा, क्योंकि इसमें जीव के चाल चलन में जीव के परिणामों तथा पुद्गल के परिणामों के बीच जो संवाद उपस्थित होता है, उसके गणितीय रूप को व्यापक शैली में खोजना होगा। आगम ग्रंथो में यह संवाद अनेक गणितीय रूप लेकर वर्णित हुआ है। एक तो अल्प-बहुत्व सम्बन्धी सूचनाएं धवलादि ग्रंथों में भरी पड़ी हैं, जहाँ जघन्य और उत्कृष्ट तथा मध्यम रूप उनकी सीमाओं को निर्धारित करते चले जाते हैं। वस्तु की किसी प्रकार की चाल कहाँ से कहाँ तक, कौन सी विशेषता लिए हुए, | कितने समय तक जारी रहेगी। मात्रा क्या होगी वा शक्ति क्या होगी, आदि सूचनाएं उपलब्ध हैं।मूलभूत सिद्धान्त
में अल्पतम संयम में होनेवाली मंदतम या तीव्रतम गति क्या होगी यह सापेक्षता-सिद्धान्त की शोध में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। आइन्स्टाइन के एक सूत्री सिद्धान्त के सफल न होने का कारण यह था कि उन्होंने महत्तम गति को मूलभूत सिद्धान्त तो आधार बनाया था किन्तु उसमें अल्पतम गति और अल्पतम समय को मूलभूत सिद्धान्तों में नहीं अपनाया था।
जहाँ आइन्स्टाइन यह भूल कर गये तथा रूपान्तरण के क्षेत्र में ग्रूप सिद्धान्त को व्यापक रूप में प्रयुक्त न कर सके, वहाँ क्वाण्टम सिद्धान्त को आधार भूत लेकर, कि कर्म (action) की अल्पतम इकाई क्या होती है, आगे बढ़े, किन्तु महत्तम तक पहुँचने के लिए उन्हें पुनः सापेक्षता के आइन्स्टाइन के मार्ग का अनुसरण करना पड़ा, किन्तु विफलता लिये हुए। अभी भी वैज्ञानिक एक अनेक संवाद के महत्त्वपूर्ण रूप का उपयोग जीव सम्बन्धी समीकरणों में नहीं ला सके हैं।
कर्म की परिभाषा में गोम्मटसारादि ग्रंथों में गणित का प्रवेश था। जैसे गति का जघन्य व उत्कृष्ट था, उसी प्रकार कर्म का जघन्य माप समय प्रबद्ध रूप लिया गया और उसका उत्कृष्ट माप असंख्यात समय प्रबद्ध लिया गया। कर्म आम्रव, कर्म सत्त्व वा कर्म निर्जरा का गणितीय रूप सरलतम रूप में स्थिति रचना यंत्र द्वारा दिया गया। । केवल एक ही समय प्रबद्ध को लेकर, फिर संख्यात और असंख्यात समय प्रबद्ध का विचार अत्यंत जटिलता लिये हुए होगा। समय प्रबद्ध ही निषेकों का समूह रूप होता है जिसमें वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक एवं गुणहानियों की संरचनाएं (structures) विशेष नियमों के आधार पर, विभिन्न कर्म प्रकृतियों के लिये अलग अलग प्रदेश, अनुभाग व स्थिति लिये हुए रहती है। सत्व में परिवर्तन आस्रव को लिए हुए जीव के परिणाम तथा उदय निर्जरा को लिये, हुए जीव के परिणाम निमित्त भूत होते हैं। यदि निश्चय सत्य और आभास रूप होता है तो व्यवहार भी सत्य और आभास के झूले में झूलता है। निश्चय और व्यावहारिक रूपों के विश्लेषण की कसौटी गणितीय स्वरूप लिये रहती है। अतः आचार्य अकलंक ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के स्वरूप को प्रमाण का एक नये अंग का संवर्द्धन हेतु प्रयास