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________________ 13001 ! संतुलित समन्वय आवश्यक है। जैन धर्म में वीतराग-विज्ञान नामक वैज्ञानिक शब्द चुना गया है, जिसका अर्थ है हिंसा रहित विज्ञान, क्योंकि रागादि की उत्पत्ति को ही हिंसा कहा गया है। अतः अहिंसक धर्म ही वीतरागविज्ञान कहा जा सकता है। जैन धर्म में जो दिगम्बर जैन साहित्य उपलब्ध है उसमें जीवों का उत्तरोत्तर विकास अथवा अधः पतन मार्गणा स्थानों में दिग्दर्शित किया गया है। इन स्थानों को गुणस्थानों की नियंत्रण सीमाओं में स्थान देकर नियंत्रण प्रणाली (गुणस्थान-पद्धति) स्थापित की गई है, जो कर्म सिद्धान्त का एक अध्याय मात्र है। एकेन्द्रिय सूक्ष्म जीवसे लेकर पंचेन्द्रिय सूक्ष्म व बादर (स्थूल) जीवों को ऐसी कर्म बंध प्रणाली में विवेचित किया गया है जिसमें कर्म संबंधी प्रत्येक प्रकृति में गणितीय एकक प्रमाण वाले कर्म परमाणु प्रदेश, उनकी शक्ति (अनुभाग), उनके रहनेकी अवधि (स्थिति) आदि व्यवस्थित धाराओं और श्रेणियों द्वारा वर्णित किये गये हैं। पुनः इस प्रणाली के बंधसे मुक्त होने हेतु जिन पारिणामिक भावों को धाराओं में प्रतिक्रियात्मक रूपसे सक्रिय किया जाता है, वे भी गणितीय व्यवस्था के अंतर्गत आते हैं। इसप्रकार कर्म बंधकी प्रक्रिया-प्रणाली से, मुक्त होनेवाली प्रक्रियाप्रणाली संभवतः योग (मन वचन काय) तथा कषाय से परे होने वाले, आत्मिक विशुद्धि को बढ़ाने वाले विलक्षण भावों से संबंधित होती है जिनके एक स्वरूपका नामकरण लब्धिगत भाव कहा जा सकता है। यह कर्मसिद्धान्त का | साररूप एक वैज्ञानिक स्वरूप कहा जा सकता है। ऐसी दिगम्बर जैन धर्म साहित्य की स्रोत सामग्री में पायी ! जानेवाली विलक्षणता प्रायः यूनान में मुख्यतः पिथेगोरस वर्ग में निम्नरूप पायी जाती है___ यूनान में रहस्यमय उपायों द्वारा पिथेगोरस वर्ग ने भी हरी, सचित फल्लियों एवं पौधों का भक्षण करने का निषेध किया था। पिथेगोरियन वर्ग के विषय में प्लेटोक गणितीय प्रणाली का अध्यात्म में प्रयोग संबंधी कथन भी कुछ इसी । तरहका है। इसी तरह चीनमें भी इस प्रकारकी सामग्री प्राप्त होती है।' बीज के रूप में श्रुत संवर्द्धन की सम्भावनाएँ श्रुत संवर्द्धन एक नई विचारधारा के उदय का सूचक है। संरक्षण करना सरल है, पर संवर्द्धन का कार्य अत्यन्त जटिल होता है। दोनों में वह अंतर है जो रक्षण और वर्द्धन में होता है। संवर्द्धन प्रगतिशील अध्याय का प्रारम्भ, जिसमें सत्य को प्राप्त करके रहस्यमयी आवरणों को हटाना होता है। इसी प्रकार के वर्द्धमान कदमों की ओर । ध्यान देना और अन्वेषण को प्रश्रय दिया जाना आवश्यक है। मात्र शोध ही नहीं, अन्वेषण भी जो आज के आधुनिकतम ज्ञान विज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचने में भूमिका निभाता रहा है। आचार्य अकलंक के सांव्यहारिक प्रत्यक्ष पर जोर दिया जाना और विद्वानों को मूल आगम जैन ग्रंथों, धवलादि टीका सहित एवं जीव तत्त्व प्रदीपिकादि टीका सहित उनके स्वरूप को, निखारने हेतु श्रुत संवर्द्धन परम्परा को पुनः जीवन दान दिया जाना । आज की अपरिहार्यता हो चुकी है। अब हम श्रुत संवर्द्धन सम्बन्धी अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं जो श्रमण संस्कृति में प्रागैतिहासिक काल से अहिंसा को अविरल विश्व में पनपाने में सक्रिय रहे और जिन्हें आज के विज्ञान का । इतिहास रचने में आवश्यकता अनुभव हुई है। ऐसे मूलभूत बिन्दुओं की साक्षी प्रमाण रूप 'षट्खण्डागम' व ! 'कषाय प्राभृत' एवं उनकी परम्परागत ग्रंथ राशियों में है ही, किन्तु उन सभी को आज के पारिभाषिक शब्दों व संदृष्टियों में गूंथकर जीर्णोद्धार रूप में प्रस्तुति भी आज की परिस्थितियों में अपरिहार्य हो गया है। अतः सर्व प्रथम । हम ऐसे विवरण को प्रस्तुत करेंगे जो श्रुत संवर्द्धन की रीतिनीति में लाभदायक हो सके। इस विवरण में हमें प्रायः ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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