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चात्य विज्ञान से
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विज्ञान ( 9 ) आध्यात्मिक मनोविज्ञान ( 10 ) सर्वोदय शिक्षा मनोविज्ञान ( 11 ) ब्रह्माण्डीय जैविक रासायनिक विज्ञान (12) अनन्त शक्ति सम्पन्न परमाणु से लेकर परमात्मा ( 13 ) ब्रह्माण्ड के रहस्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन करें।
1. सत्य के बारे में चिन्तन - ( द्रव्य विज्ञान )
भारतीय प्राचीन आध्यात्मिक विज्ञान में सबसे अधिक सत्य के ऊपर गहन चिन्तन किया गया है क्योंकि सत्य में ही समस्त गुण, धर्म, पर्याय / अवस्थाएँ, क्रिया-प्रतिक्रिया, कार्यकारण आदि सम्बन्ध सम्भव हैं। यथा'सद्रव्यलक्षणम्' । द्रव्य का लक्षण सत् है ।
यह विश्व शाश्वतिक है। क्योंकि इस विश्व में स्थित समस्त द्रव्य भी शाश्वतिक हैं। आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध हो गया है कि शक्ति या मात्रा कभी भी नष्ट नहीं होती है परन्तु परिवर्तन होकर अन्य रूप हो जाती है। सत् का लक्षण है— ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । (तत्वार्थसूत्र 5/3) अर्थात् जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है। अर्थात् इन तीनों रूप से है वह सत् है ।
द्रव्य सत् स्वरूप है। सत् स्वरूप होने के कारण द्रव्य आदि से है तथा अनन्त तक रहेगा। तथापि वह सत् अपरिवर्तनीय नहीं है, बल्कि नित्य परिवर्तनशील है। नित्य परिवर्तनशील होते हुए भी इसका नाश नहीं होता है। इसलिए उत्पाद, व्यय ध्रौव्य का सदा सद्भाव होता है। इसलिए ये सदा सत् स्वरूप ही रहते हैं।
2. जीव विज्ञान
सत्यात्मक द्रव्य में जीव द्रव्य (आध्यात्मिक शक्ति / चेतना शक्ति) बारे में भारतीय विज्ञान में सबसे अधिक चिन्तन किया गया है। क्योंकि भारतीय विज्ञान / संस्कृति दर्शन मुख्यतः आध्यात्मिक है जो कि आत्मा
द्वारा, आत्मा के लिए है, आत्मा के निमित्त से है। इसलिए भारतीय सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, जीव 1 ( आत्मा ) से ओत-प्रोत है । इसलिए भारतीय विज्ञान मुख्यतः चेतन विज्ञान है, तो पाश्चात्य ज्ञान - विज्ञान | अचेतन / जड़ संस्कृति है । जीव विज्ञान का वर्णन केवल शारीरिक, मानसिक या भौतिक दृष्टि से ही नहीं किया ! गया है, इसके साथ-साथ चेतना की दृष्टि से अधिक किया गया है। पाश्चात्य जगत् में प्राचीन काल से लेकर अभी तक जीव विज्ञान का भी वर्णन मुख्यतः भौतिक शारीरिक या मन की दृष्टि से किया गया है।
"जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोडूढगई ॥" ( द्रव्यसंग्रह, 1 )
जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीर के बराबर है, वह जीव है ।
" मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहिं हवंति तह असुवणया ।
विष्णेया संसारी सब्बे सुद्धा हु सुद्धणया ॥" ( द्रव्यसंग्रह, 13 )
संसारी जीव अशुद्ध नय से चौदह मार्गणा स्थानों से तथा चौदह गुणस्थानों से चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्ध नय से तो सब संसारी जीव शुद्ध ही हैं। समस्त विरोधात्मक कर्म के अभाव से जीव के अनन्त गुण प्रकट हो जाते हैं तथापि सिद्ध के आठ कर्म के अभाव से आठ विशेष गुण प्रगट होते हैं। यथा
"सम्मतणाण दंसण वीरिय सुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलघुमब्बावाहं अगुणा होंति सिद्धाणं ॥"
(1) सम्यक्त्व (2) अनन्त ज्ञान (3) अनन्त दर्शन (4) अनन्त वीर्य (5) सूक्ष्मत्व (6) अवगाहनत्व (7) अगुरुलघुत्व (8) अव्याबाधत्व । ये सिद्ध के विशेष गुण है ।