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________________ 272 ____ मध्यलोक में जम्बू, धातकी एवं पुष्करार्थ आदि ढाई द्वीप एवं असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुद्र हैं। उनमें पर्वतों के नाम, क्षेत्रों के नाम, नदियों के नाम, भरत व हिरावत क्षेत्र के छः खण्ड, सुमेरू आदि पर्वत, 170 । कर्मभूमि की व्यवस्था आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक व्यवस्था का पता लगता है। कर्मभूमि में मनुष्य साधना कर कर्मों का नाश कर अनंत सुख की दशावाले मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। । अन्य जीव संसार चक्र में ही बने रहते हैं। भोग-भूमि, कुभोग-भूमि, कुमानुष आदि के निरूपण में वहां की | जीवन-व्यवस्था एवं सुख-दुःख की स्थिति का ज्ञान होता है। मध्यलोक के जिनालयों का वर्णन वहां के अतुल | वैभव को बताता है। स्वर्ग लोक की व्यवस्था भी एक अद्भुत जीवन या अर्थ व्यवस्था को बताता है। भवनवासी देवों के स्थान, भवनों का प्रमाण, जिनमंदिर, उन देवों के परिवार आदि का वर्णन मानो मनुष्य की अर्थव्यवस्था को चुनौती देता है। उदाहरणार्थ उनके भवन समचतुष्कोण, तीन सौ योजन ऊँचे व विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण होते हैं। अनेक रचनाओं सहित, उत्तम सुवर्ण व रत्नों से निर्मित भवनवासी देवों के महल हैं। इसी प्रकार विभिन्न जाति के व्यन्तर देव अपने परिवार देवों सहित अनेक प्रकार के सांसारिक सुखों का अनुभव कर अपने पुरों में बहुत प्रकार की क्रीड़ाओं को करते हुए मग्न रहते हैं एवं दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। इंद्रक, श्रेणीबद्ध, प्रकीर्णक ऐसे भेद वाले विमान कल्प व कल्पातीत देवों के होते हैं, उनकी संख्या, प्रमाण व उनके वैभव की चर्चा भी आगम में विस्तृत रूप से है। विमानों का प्रामण संख्यात व असंख्यात योजन वाले हैं। इन विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ आदि विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं जो सुवर्णमय, स्फटिकमय आदि रत्नों से निर्मित उपपाद शय्या, आसन शाला आदि से परिपूर्ण हैं। ऐरावत हाथी जो वाहन जाति का देव है, जो दिव्य रत्नमालाओं से युक्त है, रत्नों से निर्मित दांत है और दांतों पर सरोवर, कमल, नाट्यशाला आदि का स्वरूप । अतुल वैभव को बताता है। स्वर्णों में अनुपम व रत्नमय जिन भवन हैं। देवों का कामसेवन प्रवीचार सुख है जो काम । प्रवीचार, रूप प्रतीचार, शब्द प्रवीचार व मनः प्रवीचार भेदरूप विभिन्न स्वर्गों में अलग-2 हैं। तीर्थंकरों के पंचल्याणक में देवों द्वारा भाग लेने का अद्भूत व विस्तृत वर्णन आगम में मिलता है जो उनकी जीवन पद्धति, यातायात, वैभव, कला आदि आर्थिक विषयों पर प्रकाश डालती है। समवशरण की विचित्र रचना भी उनके वैभव व निर्माण कला की आश्चर्यकारी अर्थव्यवस्था बतलाता है। . सिद्धों का सुख तो वचन के आगोचर है। चक्रवर्ती, भोगभूमि, घरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्रों के सुख से भी अनंत-अनंतगुणा है। इन सबके अतीत, अनागत व वर्तमान संबंधी सभी सुखों को एकत्र करने पर भी सिद्धों का क्षणमात्र में उत्पन्न हुआ सुख अनंत गुणा है। चरणानुयोग श्रावक अपने 'अर्थ' की प्राप्ति, वृद्धि व रक्षा कैसे करते हैं उसका वर्णन चरणानुयोग के शास्त्रों में होता है। श्रावक व मुनि धर्म का वर्णन इसकी विशेषता है और रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धि उपाय, आत्मानुशासन, सागरधर्मामृत, रयणसार, मूलाचार आदि अनेक ग्रंथ इन विषयों पर प्रकाश डालते हैं। लोक में जो अर्थशास्त्र है वह न केवल धन या अर्थ का उपार्जन कैसे करना बताता है अपितु उसकी रक्षा, खर्च या उपयोग कैसे करना उस पर भी विचार करता है। इनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र को धर्म बतलाकर लोकमूढ़ता, कुदेव या ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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