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संतो के आशीर्वाद
णाणगुणेहि विहीणा, एदं तु पदं बहू वि ण लहंते। | डॉ. शेखरचन्द जैन का जीवन ज्ञानाराधना में तन्मय तं गिण्ह णियदमेदं, जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं॥ | रहा है। उन्होंने ज्ञानाराधना को चारित्राराधना से समन्वित
ज्ञानगुण से रहित अनेक पुरुष नाना कर्म करते हुए भी | किया है। दीर्घकाल की अवधि में वे चिन्तन-मंथन करते ज्ञान स्वरूप इस पद को प्राप्त नहीं करते; इसलिए हे भव्य! | रहे हैं और उसके आधार पर आत्मानुभूति के पथ पर यदि तू कर्मों से मुक्ति चाहता है, तो इस नियत पद-ज्ञान | गति-प्रगति भी हुई है। विद्या के क्षेत्र में ऐसे तपस्वी का को ग्रहण कर।
अभिनन्दन ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाने का उपक्रम एदम्हि रदो णिच्वं, संतुह होहि णिच्चमेदम्हि। | है। जिसमें आनन्द की सहज स्फुरणा हो, वैसे आत्मानन्द
। है। जिसमें आनन्द एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं॥ व्यक्ति का अभिनन्दन करनेवालों के लिए सहजानन्द का हेभव्य! तू इस ज्ञान में सदा प्रीति कर, इसी में तू सदा | क्षेत्र हो सकता है। सन्तुष्ट रह, इससे ही तू तृप्त रह। ज्ञान में रति, सन्तुष्टि
आचार्य महाप्रज्ञ और तृप्ति से तुझे उत्तम सुख होगा।
धर्मानुरागी डॉ. शेखरचन्द जैन अपनी सक्रियता, गम्भीर, प्रखर चिंतन, क्रियात्मक-रचनात्मक कार्यशाली और सौजन्यपूर्ण व्यवहार के लिए देश भर में जाने जाते हैं। पुस्तकों का लेखन कर जैन साहित्य को समृद्ध किया है तथा 'तीर्थंकर वाणी' पत्रिका का कुशल सम्पादन भी किया है। उनके विविध कार्यों एवं सेवा के अनुमोदनार्थ उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है। मेरा मंगल आशीर्वाद है।
आचार्य वियानंद