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________________ 2491 । नाम से छह काल होते हैं। उत्सर्पिणी के इससे उल्टे अतिदुःषमा, दुःषमा, दुःषमासुषमा, सुषमादुषमा, सुषमा । और सुषमासुषमा नाम से छह काल होते हैं। ___उन सुषमासुषमा आदि की स्थिति क्रम से चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोड़ाकोड़ी सागर, दो कोड़ाकोड़ी सागर, ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, इक्कीस हजार वर्ष और इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे विपरीत है। इनमें से सुषमासुषमा आदि तीन कालों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। ___प्रथम काल की आदि में मनुष्यों की आयु का प्रमाण तीन पल्य है, आगे ह्रास होते-होते अन्त में दो पल्य प्रमाण है। वितीय काल के प्रारंभ में दो पल्य और अंत में एक पल्य प्रमाण है। तृतीय काल के प्रारंभ में एक पल्य और अंत में पूर्वकोटि प्रमाण है। चतुर्थकाल के प्रारंभ में पूर्व कोटिवर्ष, अंत में १२० वर्ष है। पंचमकाल की आदि में १२० वर्ष अंत में २० वर्ष है। छठे काल के प्रारंभ में २० वर्ष, अन्त में १५ वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे उल्टा समझना। __ प्रथम काल के मनुष्य तीन दिन बाद भोजन करते हैं, द्वितीय काल के दो दिन बाद, तृतीय काल के एक दिन बाद, चतुर्थ काल के एक दिन में दो बार, पंचम काल के बहुत बार और छठे काल के बार-बार भोजन करते हैं। तीन काल तक के भोगभूमिज मनुष्य दश प्रकार के कल्पवृक्षों से अपना भोजन आदि ग्रहण करते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी की व्यवस्था ___ इस अवसर्पिणी काल के तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग अवशिष्ट रहने पर प्रतिश्रुति से लेकर ऋषभदेव पर्यंत १५ कुलकर हुए हैं। तृतीय काल में ही तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। ऐसे ही अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर भी चतर्थ काल में तीन वर्ष सादे आठ मास शेष रहने पर निर्वाण को प्राप्त हए हैं। वर्तमान में पंचमकाल चल रहा है इसके तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर अंतिम वीरांगद मुनि के हाथ । से कल्कि राजा द्वारा ग्रास को कररूप में मांगे जाने पर मुनि का चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर लेने से । धर्म का अन्त, राजा का अन्त और अग्नि का अंत एक ही दिन में हो जावेगा। प्रलयकाल छठे काल के अंत में संवर्तक नाम की वायु पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि को चूर्ण कर देती है। तब वहाँ पर स्थित । सभी जीव मूर्छित हो जाते हैं। विजया पर्व, गंगा-सिंधु नदी और क्षुद्र बिल आदि के निकट रहने वाले जीव इनमें । स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान देव और विद्याधर कुछ मनुष्य आदि युगलों को वहाँ से ले जाते हैं। इसे छठे काल के अन्त में पवन, अतिशील पवन, क्षाररस, विष, कठोर अग्नि, धूलि और धुंआ इन सात वस्तुओं की क्रम से सात-सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात् ४९ दिनों तक इस अग्नि आदि की वर्षा होती है। उस समय अवशेष रहे मनुष्य भी नष्ट हो जाते हैं, काल के वश से विष और अग्नि से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन नीचे तक । चूर-चूर हो जाती है। इस अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी काल आता है। उस समय मेघ क्रम से जल, दूध, घी, अमृत और रस की वर्षा सात-सात दिन तक करते हैं। तब विजयाध की गुफा आदि में स्थित जीव पृथ्वी के शीतल हो जाने पर वहाँ से निकल कर पृथ्वी पर फैल जाते हैं। आगे पुनः अतिदुःषमा के बाद दुःषमा आदि काल वर्तते हैं। इस प्रकार भरत और ऐरावत के आर्यखण्डों में यह षट्काल परिवर्तन होता है अन्यत्र नहीं है। अन्यत्र क्या व्यवस्था है । देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषमा-सुषमा काल अर्थात् उत्तम भोगभूमि है। हरि क्षेत्र और रम्यक क्षेत्र में सुषमा
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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