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2471 इस जम्बूद्वीप में भरत और ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। हैमवत, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह स्थानों पर भोगभूमि की व्यवस्था है जो कि सदाकाल एक सदृश होने से शाश्वत है। विदेह क्षेत्र में पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह, ऐसे दो भेद हो गये हैं। उनमें भी वक्षार पर्वत तथा विभंगा नदियों के निमित्त से बत्तीस विदेह हो गये हैं। इन सभी में विजयार्ध पर्वत हैं तथा गंगा-सिंधु
और रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। इस कारण प्रत्येक विदेह में भी छह-छह खण्ड हो जाते हैं। सभी में मध्य का एक आर्यखण्ड है, शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। सभी विदेह क्षेत्र में चतुर्थकाल के प्रारंभ के समान कर्मभूमि की व्यवस्था सदा काल रहती है अतः इन विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि रचना है। मात्र भरत ऐरावत क्षेत्र में ही वृद्धि हास होता है। जैसाकि उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में कहा है___"भरतैरावतयोवृद्धि-हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिव्ययसर्पिणीभ्याम्"
भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह काल परिवर्तन वृद्धि-हास होता रहता है। इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानंद आचार्य कहते हैं कि
"तास्थ्यात्ताच्छब्यसिद्धर्भरतैरावतयोवृतिहासयोगः अधिकरणनिर्देशो वा, तत्रस्थानां हि मनुष्यादीनामनुभवायुः प्रमाणादिकृतौ वृविहासौ षटकालाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।"
उसमें स्थित हो जाने के कारण उसके वाचक शब्द द्वारा कहे जाने की सिद्धि है. इस कारण भरत और ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और हास का योग बतला दिया है। अथवा अधिकरण निर्देश मान करके उनमें स्थित हो रहे, मनुष्य, तिर्यंच आदि जीवों के अनुभव, आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, सुख आदि का वृद्धि हास समझना चाहिए।
आगे के सूत्र में स्वयं ही श्री उमास्वामी आचार्य ने कह दिया है। "ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः॥२९॥
इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त जो भूमियाँ हैं वे ज्यों की त्यों अवस्थित हैं। अर्थात् अन्य हैमवत आदि क्षेत्रों में । जो व्यवस्था है सो अनादिनिधन है वहाँ षट्काल परिवर्तन नहीं है। ___ इस बात को इसी ग्रंथ में चतुर्थ अध्याय के "मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयोनृलोके? ॥१३॥" इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानंद आचार्य ने अपने शब्दों में ही स्पष्ट किया है। जिसकी हिन्दी पं. माणिकचंद जी न्यायाचार्य ने की है। वह इस प्रकार है
"वह भूमि का नीचा ऊँचापन भरत ऐरावत क्षेत्रों में कालवश हो रहा देखा जा चुका है। स्वयं पूज्यचरण सूत्रकार का इस प्रकार वचन है कि भरत ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और हास छह समय वाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों करके हो जाते हैं। अर्थात् भरत और ऐरावत में आकाश की चौड़ाई न्यारी-न्यारी एक लाख के एक सौ नब्बेवें भाग यानी पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन की ही रहती है। किन्तु अवगाहन शक्ति के अनुसार इतने ही आकाश में भूमि बहुत घट-बढ़ जाती है। न्यून से न्यून पाँच सौ छब्बीस, छह बटे उन्नीस योजन भूमि अवश्य रहेगी। बढ़ने पर इससे कई गुनी अधिक हो सकती है। इसी प्रकार अनेक स्थल कहीं बीसों कोस ऊँचे, नीचे, टेढ़े, तिरछे, कोनियाये हो रहे हो जाते हैं। अतः भ्रमण करता हुआ सूर्य जब दोपहर के समय ऊपर आ जाता है, तब सूर्य से सीधी रेखा पर समतल भूमि में खड़े हुए मनुष्यों की छाया किंचित् भी इधर-उधर नहीं पड़ेगी। किन्तु नीचे ऊँचे तिरछे प्रदेशों पर खड़े हुए मनुष्यों की छाया इधर-उधर पड़ जायेगी। क्योंकि सीधी रेखा का मध्यम ठीक नहीं पड़ा हुआ है। भले ही लकड़ी को टेढ़ी या सीधी खड़ी कर उसकी छाया को देख लो।"
"तन्मनुष्याणामुत्से धानुभवायुरादिभिवृद्धिहासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं, गौणशब्दाप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात्। तेन भरतैरावतयोः