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________________ K MareAINI कालापानिज, 245 | के प्रकाश में नीले आकाश के रंग में सूक्ष्म कीटाणु स्वतः नष्ट हो जाते हैं या उत्पन्न ही नहीं हो पाते, जबकि रात्रि के कृत्रिम प्रकाश में उन सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति सहज और अधिक होती है। जो भोजन में भी मिल जाने और गिरने आदि से हिंसा तो होती ही है, अनेक शारीरिक असाध्य रोगों की उत्पत्ति का खतरा भी बना रहता है। अमितगति श्रावकाचार में कहा है कि दिन के आदि और अन्त की दो-दो घड़ी के समय को छोड़कर जो भोजन । निर्मल सूर्य के प्रकाश में निराकुल होकर करते हैं वे मोहांधकार को नाशकर अर्हन्तु पद पाते हैं। । क्योंकि आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि प्रकाश की सम्पूर्ण आंतरिक परावर्तन की घटना के कारण पूर्व दिशा में सूर्य अपने वास्तविक उदयकाल से दो घड़ी पूर्व ही दिखने लगता है, किन्तु वह वास्तविक सूर्य न होकर उसका आभासी प्रतिबिम्ब दिखलाई देता है। इसी प्रकार वास्तविक सूर्य डूब जाने के बाद भी दो घड़ी तक | उसका आभासी प्रतिबिम्ब ही दिखलाई देता रहता है। सूर्य के इस आभासी प्रतिबिम्ब में दृश्य किरणों के साथ | अवरक्त लाल किरणे एवं अल्ट्रावायलेट किरणें नहीं होती, क्योंकि वे सूर्योदय के मात्र ४८ मिनट बाद आती हैं ! और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व ही समाप्त हो जाती हैं। इसी कारण सूर्योदय के दो घड़ी बाद और सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व भोजन ग्रहण की व्यवस्था आरम्भ से ही जैन परम्परा में सुनिश्चित रही है। (जिनभाषित जनवरी २००५ 1 में प्राचार्य निहालचंद जैन) इसीलिए कार्तिकेयानुप्रेक्षा (८२) में तो यहां तक कहा है __जो निशिं भुक्ति वज्जवि, सो उबवासं करेंवि छम्मासं। संवच्छ रस्स मो आरंभं चयदि रयणीए॥ अर्थात् जो पुरुष रात्रिभोजन त्याग करता है, वह एक वर्ष में छह मास के उपवास करता है, क्योंकि वह रात्रि 1 में आरम्भ का त्याग करता है। आहार शुद्धि एवं आहार ग्रहण शैली . आहार शुद्धि भी जैन जीवनशैली का महत्वपूर्ण अंग है। इसके अन्तर्गत मर्यादा पूर्वक शुद्ध भोज्य सामग्री का । उपयोग, चौका शुद्धि तथा भोजन पकाने की शुद्धता पर विशेष जोर देना - ये सब आहारशुद्धि के अंग हैं। इसी शुद्धता के कारण भोजन शुद्धि को जैन जीवनशैली की प्रतिष्ठा और आदर संपूर्ण देश में आज भी है। इस मर्यादा की रक्षा हम लोगों का प्रमुख कर्तव्य है। इसिलिए आहार के शुद्ध-अशुद्ध का विशेष महत्व है। सूर्य के आताप वाले स्थान पर, संकाश (तत्सदृश उष्ण स्थान) स्थान पर, अन्धकार युक्त मकान में और वृक्ष के नीचे बैठकर तथा तर्जनी को ऊंची करके कदापि नहीं रखना चाहिए। मख, हाथ और पैरों को बिना धोये, नंगे । शरीर और मलिन वस्त्र पहने हए तथा वाम हाथ से कभी नहीं खावे। साथ ही कहीं पर किसी के पात्र में अथवा जिस पात्र में भोजन बना हो उसी पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। एक वस्त्र पहनकर और गीले वस्त्र से मस्तक ढंककर, अपवित्रता और अतिगृद्धता से बुद्धिमान पुरुष को कभी नहीं खाना चाहिए। और भी आगे कहा हैजूतों को पहने हुए, व्यग्रचित्त होकर, भूमि में बैठकर, पलंग खाट पर बैठकर, दक्षिण दिशा और विदिशाओं की ओर मुख करके भी कभी नहीं खावे। गादी आदि आसन पर बैठकर अयोग्य स्थान पर बैठकर, कुत्तों और । चाण्डालों के द्वारा देखे जाते हुए तथा जाति व धर्म से पतित पुरुषों के साथ, फूटे और मैले भाजन में रखे हुए भोजन को कभी न खावे। अपवित्र-वस्तु जनित भोजन नहीं खावे। भ्रूण आदि हत्या करनेवालों के द्वारा देखा गया, रजस्वला स्त्री के द्वारा बनाया गया, परोसा गया या छूआ गया भोजन भी नहीं खावे..... मुख से बच-बच या चप-चप शब्द करते व मुख को विकृत करते हुए भी नहीं खाना चाहिए। (कुन्दकुन्द श्रावकाचार ३/३०-३६) इस तरह श्रावकाचारों में विविध प्रकार से आहार शुद्धि का अच्छा प्रतिपादन किया गया है, ये सभी अंग । हमारी आदर्श जीवनशैली के परिचायक हैं। saviour obamme monker. NON
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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