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सतियों के जतावना i का ही संकलन है। प्रस्तुत संग्रह में सम सामायिक, ऐतिहासिक, पौराणिक पृष्ठभूमियों के विषय का चयन किया गया
है। 'भ. ऋषभदेव : आदि संस्कृति के पुरोधा- वर्तमान परिप्रेक्ष्य में' तथा 'तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्नों की वैज्ञानिकता' ऐसे निबंध है जो प्राचीन तथ्यों को मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में नवीन संदर्भो में प्रस्तुत किये गये हैं। लेखकने स्याद्वाद को जैनधर्म की रीढ़ माना है तो प्रव्रज्या को मुक्ति की ओर अग्रसर होने का साधन माना है। कृति में ध्यान का स्वरूप और उसका महत्त्व, कर्म की वैज्ञानिकता, जैन तत्त्व मीमांसा को प्रस्तुत करते हुए णमोकार मंत्र के बहुआयामी परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत किया गया है, साथ ही परंपरा से हटकर भक्तामर स्तोत्र में बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से उसके अंदर के रहस्यों को या भावनाओं को उजागर किया गया है। लेखक की दृष्टि हमेशा भविष्य पर होती है और इसी परिप्रेक्ष्य में 'धर्म मानवता के विकास का साधन', 'आगत युग में जैनधर्म की वैश्विक भूमिका' एवं 'अहिंसा और शाकाहार' जैसे निबंधों को प्रस्तुत किया गया है। लेखक मानता है कि जैनधर्म न तो रूढ़िवादी धर्म है न संकुचित, वह तो मानवता के विकास की सेवा करनेवाला धर्म है। यह दृष्टिकोण 'सामाजिक सेवा और जैन समाज' . लेख में प्रस्तुत है।
पुस्तक का प्रत्येक निबंध स्वयं में पूर्ण है जो धर्म के वातायन से समग्र दर्शन को प्रस्तुत करता है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
प्रस्तुत पुस्तक सन् 1992 में पू. ग.आ.ज्ञानमती माताजी के ६०वें जन्मदिन पर आयोजित अभिवंदन समारोह के अवसर पर वीर ज्ञानोदय ग्रंथ माला के १३८३ पुष्प के रूप में, श्री दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर द्वारा प्रकाशित की गई थी। । प्रस्तुत पुस्तक में पू. माताजी के जीवन और कवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। पू. आ. चन्दनामतीजी के शब्दों में कहें तो 'इस लघु परिवेश में महान व्यक्तित्त्व को । समेटना असंभव कार्य ही है, फिर भी शेखरजी का प्रयास सराहनीय है।' इस पुस्तक का लेखन डॉ. जैन की पू. माताजी के प्रति भक्ति का प्रतिबिंब है। यद्यपि वे पू. माताजी के
बचपन के ब्रह्मचारी जीवन से लेकर इस यात्रा का कुछ आचमन ही करा सकें हैं क्योंकि उनके ही शब्दो में ‘पुस्तक ज्ञानमतीजी के जीवन को जानने-समझने के लिए मात्र पूर्व पीठिका ही है।' पू. माताजीने किस तरह बचपन से ही रुढ़ियों के प्रति विद्रोह किया और अपने मन की दृढ़ता और आस्था को बरकरार रखते हुए कैसे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर ज्ञानमती तक के विकास की यात्रा को संपन्न किया इसका लेखा-जोखा इस पुस्तक में है। वे मात्र आत्मसाधना ही नहीं करती हैं परंतु उन्होंने साहित्य साधना से हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत में इतना साहित्य सृजन किया है कि आज वे साहित्य रचना में मील का पत्थर बन गईं हैं। उन्होंने उपेक्षित तीर्थों का उद्धार किया। कहीं पर भी अपने नाम का तीर्थ नहीं बनाया। ऐसी साधना के शिखर पर आरुढ़ व्यक्तित्त्व के जीवन को प्रस्तुत करना मात्र उनके प्रति एक भावांजलि है।
ज्योतिर्धरा । 'ज्योतिर्धरा' डॉ. शेखरचन्द्र जैन द्वारा लिखित जैन जगत की दस महान सतियों की वे कथायें हैं जिन्होंने सतीत्व के लिए जीवन अर्पण किया और उसीके बल पर मुक्ति की ओर प्रयाण भी किया। ग्रंथ का प्रकाशन आ.शांतिसागर 'छाणी' स्मृति ग्रंथमाला द्वारा हुआ है, और इसकी प्रेरणा स्वरूप रहे हैं पू. उपा. ज्ञानसागरजी। पू. उपा. ज्ञानसागरजी निरंतर नये लेखकों को प्रोत्साहित करते रहे हैं और इसी श्रृंखला में इस कृति की प्रेरणा भी उन्हें उन्हीं से प्राप्त हुई। लेखकने अपनी बात के अंतर्गत कहा है 'इन समस्त कथाओं का उद्देश्य हैं प्राचीन परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में नये युग ।