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स्मृतियों के वातायन
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पानी में गिरनेवाला भी डूबेगा नहीं, अपितु डूबकी का आनंद लेगा ।
प्रत्येक कविता पठनीय, मननीय है । हाँ! कहीं-कहीं कविने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो प्रचलित नहीं है अतः दुरूह भी लगते हैं।
मृत्यु महोत्सव
समीक्षक : डॉ. भागचंदजी भागेन्दु
डॉ. शेखरचन्द्र जैन द्वारा लिखित निबंध संग्रह 'मृत्यु महोत्सव' का प्रकाशन सन् 1992 में हुआ, जिसमें १७ आलेख संग्रहित हैं। जैनदर्शन में मृत्यु को महोत्सव माना गया है और इसीलिए कृति का नाम एक निबंध 'मृत्यु । महोत्सव' के नाम पर निर्धारित किया गया। पुस्तक का समर्पण पू. आचार्यों, मुनिराजों, आर्यिका माताओं, धर्मज्ञ ! विद्वानों को किया गया है। प्रायः सभी निबंध ललित निबंध शैली में अभिव्यक्त हुए हैं जो जैन संस्कृति में जन्म और
जीवन को सुधारने का मार्ग प्रस्तुत करते हुए मरण को सँवारने का संदेश देते हैं। जीने की कला में निपुण होना जितना आवश्यक है, मरने की कला सीखना उतना ही अनिवार्य है। कृति में 'मरणं प्रकृतिः शरीरिणां, विकृतिः जीवनमुच्यते बुधैः' का प्रतिपादन करते हुए जीवन के चरम सत्य मृत्यु का व्याख्यान किया है। कृति में जैन सिद्धांत पर आधारित निबंध है, जिनमें अहिंसा, अपरिग्रह आदि मुख्य है। 'जीवः जीवस्य भोजनम्' लघु निबंध होने पर भी हिंसात्मक मान्यताओं को तोड़ता है। लेखक 'वर्तमान युग और धर्म' तथा 'धर्म मानवता के विकास का साधन' निबंधों में उद्घोषणा करता है कि धर्म रूढ़ि नहीं है जीवन जीने की कला है एवं विश्वशांति का उपाय है। कृति में आ. कुंदकुंद 1 एवं आ . हेमचंद्र के कृतित्व का भी परिचयात्मक एवं जीवनमूल्य तथा सांस्कृतिक अवदान की समीक्षा की गई है।
लेखकने एक ओर 'जैन तत्व मीमांसा' और 'जैन ब्रह्मांड' जैसे विषयों पर कलम चलाई हैं तो 'श्रमणों का सामाजिक योगदान' तथा 'विदेशों में जैनधर्म' जैसे लेख प्रस्तुत कर युगीन आवश्यकताओं को एवं प्रचार-प्रसार किया है। यह कालजयी कृति है जिसमें जैनधर्म और दर्शन के उदात्त एवं महनीय सिद्धांत को सार्वजनीन स्तर पर ! व्याख्यायित करने की उत्कृष्ट अभीप्सा सर्वतो भावेन निदर्शित है। भाषा सरल-प्रांजल है ।
जैनधर्म सिद्धांत और आराधना
राम सितार आराधना
समीक्षक : श्रीमती इन्दुबहन शाह
‘जैनधर्म सिद्धांत और आराधना' सन् 1981 में प्रकाशित गुजराती 'जैन आराधनानी वैज्ञानिकता' का हिन्दी रूपांतरण है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक का उद्देश्य उन लोगों को जैनधर्म का ज्ञान प्रदान करना है जो मूलतः तत्त्वों और सच्ची क्रियाओं से अनभिज्ञ हैं। मूलतः सन् 1980-81 में जब भावनगर में श्री महावीर जैन विद्यालय में आचार्यश्री मेरूप्रभसूरीजी पधारे और विद्यार्थियों के साथ उनकी जैनधर्म पर चर्चा होती रही तब उन्होंने ही प्रेरित किया कि एक ऐसी पुस्तक लिखो जिसमें जैनधर्म के सिद्धांतों की भी चर्चा हो और क्रियाओं को भी शास्त्रीयरूप से प्रस्तुत किया जाय। उनकी प्रेरणा
प्रथम गुजराती और बाद में इस हिंदी कृति का प्रकाशन हुआ ।
प्रथम खंड सिद्धांत पक्ष है जिसमें जैनधर्म का सामान्य परिचय, जैन शब्द का अर्थ, धर्म क्या है, धर्म और संप्रदाय का भेद, जैन धर्म क्यों है ?, हम जैन क्यों हैं ?, जैनधर्म में भगवान की क्या अवधारणा है ?, जैनधर्म अन्य धर्मों से कैसे विशिष्ट है? इनको समझाते हुए जैनधर्म के प्राण अहिंसा, बारहव्रत, बारह भावना, कर्मसिद्धांत, नवतत्त्व, स्याद्वाद, त्रिरत्न एवं षट्लेश्या की चर्चा आगम के आधार पर प्रस्तुत की गई है।
द्वितीय खंड में आराधना पक्ष के अंतर्गत आराधना की आवश्यकता क्या है ?, देवदर्शन कैसे किये जायें, दर्शन ! मंत्र कैसे बोला जाय, पूजा की महत्ता क्या है? उसके प्रकार क्या हैं?, प्रक्षाल क्यों और कैसे करना चाहिए?,