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कुन्थुसागरजी ने इसी दौरान कब १३ पंथ और २० पंथ के संकुचित दायरे में आ. विद्यासागरजी के विरुद्ध इस ग्रंथ की रचना कर डाली और किसीको पता भी नहीं चला और जयपुर से उसका प्रकाशन भी करा लिया। इतना ही नहीं श्री इन्द्रमलजैन ने आ. श्री विद्यासागरजी के विरुद्ध परचा भी छपाया । यह सब इतना गुप्त रहा कि चातुर्मास पूर्ण के पश्चात कुन्थुसागरजी के विहार करने के दिन तक किसीको पता ही नहीं चला। विहार के समय ही ये पर्चे बाँटे गये। पुस्तक भी विद्वानों को भेजी गई। मुझे भी यह प्रति प्राप्त हुई। मैंने कुन्थुसागरजी से जूनागढ़ में जाकर इसकी चर्चा कि और यह गलत हुआ है यह स्पष्ट कहा। उन्होंने कुछ अंशों तक स्वीकार भी किया। कुन्थुसागरजी ने विद्यासागरजी को एक विस्तृत पत्र लिखा और परोक्ष रूप से खेद भी व्यक्त किया। उन्होंने चाहा कि आ. श्री विद्यासागरजी जो सौराष्ट्र में विचरण कर रहे हैं, जिनका गिरनार आने का कार्यक्रम है- यदि वे जूनागढ़ पधारें तो रूबरू मैं चर्चा भी करूँगा और क्षमा भी माँग लूँगा । परंतु आ. श्री विद्यासागरजी वहाँ नहीं गये। बात आई-गई हो गई।
आ. कुन्थुसागरजीने अपने ग्रंथो को छपवाने के लिए मुझे कार्य सौंपा। दो ग्रंथ लगभग ३००० पृष्ठों के थे । वे बाहर ग्रंथ छपाने के लिए प्रयत्नशील थे। मैंने उनसे एकदिन मज़ाक में कहा कि यही भाव आप मुझे दें तो मैं कम्प्यूटर लगाकर काम करा सकता हूँ। वे तो तुरंत राज़ी हो गये। उस समय कम्प्यूटर प्रारंभ करने का खर्च लगभग डेढ़ लाख रू. था । मैंने उनसे ५०,००० एडवान्स माँगे जो मुझे प्राप्त हुए। मैंने भी अपने मकान में 'श्री कुन्थुसागर ग्राफिक्स सेन्टर' के नाम से कार्य का प्रारंभ किया। जिसका उद्घाटन स्वयं आ. श्री कुंथुसागरजीने अन्य मुनियों के साथ किया। बाद में कार्य पूरा होने पर उनकी समस्त राशि हिसाब में जमा कर ली।
चूँकि मैंने कुन्थुसागरजी के ग्रंथ उनके आर्थिक सहयोग से छापे थे इसलिए मेरे विघ्नसंतोषी लोगों ने यह बात देश में प्रचलित की कि 'मुखडा देख लो दर्पण में' मैंने छापा है। इतना ही नहीं आचार्य श्री तक इस बात को मिर्च 1 मसाला लगाकर पहुँचाई गई। शायद इससे वे भी कुछ असंतुष्ट रहे । इसका अनुमान मैंने इस आधार पर किया ! कि जब मैं नेमावर में उनके दर्शन करने गया तब वे जिस वात्सल्य से पहले बात करते थे वैसी बात भी नहीं की। यह शायद मेरा भ्रम भी हो सकता है। मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी के मन में यही बात थी, परंतु वे मन के इतने उदार हैं कि अपनी सभी गोष्ठियों में मुझे आमंत्रित कराते रहे। सीकर में भी मैं आमंत्रित था वहाँ एक प्रसंग पर उन्होंने भी मुझे ही पुस्तक का प्रकाशक मानकर बात की। तब मैंने एक उदाहरण देकर कहा 'महाराज, जब यह कहा जाये कि किसी व्यक्ति का कान कौआ काटकर भाग गया है तो समझदार अपना कान देखता है और ना समझ कौए के पीछे दौड़ता है। मुझे लगता है कौए के पीछे दौड़नेवालों ने आपको भ्रमित किया है।' मैंने उन्हें समझाया कि मेरा प्रकाशन का कार्य तो इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद हुआ है फिर मैंने पुस्तक कैसे प्रकाशित 1 की ? मेरी आस्था और दृढ़ता पू. विद्यासागरजी के साथ रही है और रहेगी । इसप्रकार उनके मनका मलाल दूर हुआ। बाद में पू. आचार्य श्री के मन को भी मैं अपनी स्पष्टता से साफ कर सका।
लघु प्रलय
बात सन् १९८२ की है। जब मेरे पिताजी का दशहरे के दिन स्वर्गवास हुआ था। उनकी १३वीं १३ दिन बाद थी। मेरे सभी रिश्तेदार, मित्रगण आये हुए थे। भावनगर से श्री शशीभाई पारेख आये थे। उस दिन मूसलाधार बारिस हुई। किसी तरह हम लोग १३वीं के भोजन को निपटा सके। लेकिन दोपहर बाद बारिस बढ़ती ही गई। पूरे दिन रेड़ियो में समाचार प्रसारित होते रहे कि - अतिवृष्टि के कारण सभी रेलगाड़ियाँ, बसें बंद हो गई हैं। लेकिन