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अमावसंमार एवं सफलता की कहान
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कमी होने से युनिट से समय पर नहीं आते थे।६-७ परेड के बिस्कुट कभी-कभी इकट्टे आते। बड़ा स्टॉक आता। कैडेट तो बिस्कुट खाते ही पर हमलोग भी बिस्कुट खाते। कैडेट को ४२ या ४९ बिस्कुट मैं से एक परेड के जो सात बिस्कुट कम देते वे सब हम लोगों के घर के लोग महेमान, जे.सी.ओ., एन.सी.ओ. के घर के लोग खाते। हम लोग यह कार्य मिल बाँट कर करते। सभी खुश। पर आज लगता है कि वह गलत काम था। विचित्रघटना
सूरत में कॉलेज के समय एक बड़ी ही विचित्र घटना घटित हुई। कॉलेज जंगल में था चारों ओर खेत थे। वहीं । एकदिन एक छात्र ने एक छात्रा जिससे उसका प्रेम था- उससे शारीरिक संबंध स्थापित किये। उन्हें खेत के
रखवाले ने देख लिया। शिकायत आचार्य तक पहुँची। केस मुझे सुपुर्द किया गया। मैंने पूरा केस मनोवैज्ञानिक ढंग
से हल किया। दो-चार दिन लड़के और लड़की पर वॉच रखा। फिर एक दिन लड़की से परोक्ष रूप से पूछा और | उसे बदनामी से बचने के लिए कॉलेज बदलने की सलाह दी। लड़की ने रोते-रोते सबकुछ कबूल किया। कॉलेज । बदली और लड़के को भी कॉलेज से निकाल दिया।
जैन मित्र में ____ मैं नवयुग कॉलेज में कार्य कर ही रहा था। इधर आदरणीय श्री स्वतंत्रजी के सूरत छोड़ने पर जैनमित्र | साप्ताहिक में स्थान रिक्त हुआ। बुजुर्ग श्री कापड़ियाजी ने मुझसे कहा कि दोपहर में ४-५ घंटे आ जाया करो। । उन्होंने रहने को निःशुल्क मकान दिया एवं २०० रू. प्रति माह अतिरिक्त देने को कहा। मैंने उसका स्वीकार किया। दोपहर ११ बजे कॉलेज से आता, खाना खाकर प्रेस जाता। वहाँ सबसे बड़ा फायदा वह हुआ कि मुझे जैन साहित्य-सविशेष दिगम्बर जैन साहित्य पढ़ने का अवसर मिला। यहाँ प्रेस के साथ पुस्तक विक्रय का कार्य भी । होता। अतः भारत वर्ष के जैन प्रकाशनों का यहाँ संग्रह था। यहीं अनेक ग्रंथों को पढ़ने और देखने का मौका । मिला। साथ ही जैन मित्र के लेखों का चयन, प्रुफरिडिंग, ले आऊट और शिक्षा भी प्राप्त हुई। आदरणीय श्री कापड़ियाजी लगभग ७५ वर्ष के थे। वे एक ही आसन पर बैठकर ८-१० घंटे काम करते। मुझे सिखाते। उनके पुत्र श्री डाह्याभाई पुस्तक बिक्री और जैनमित्र का पूरा कार्य देखते। मेरी उनसे अच्छी मित्रता हुई।
रोज शाम को कापड़ियाजी अपनी एक घोड़े की बग्गी में घूमने जाते। मुझे नीचे से आवाज देते और रोज अपने साथ कभी स्टेशन तो कभी चौपाटी पर घूमने ले जाते। वे प्रायः दो केले लेते एक स्वयं खाते और एक मुझे खिलाते। पूरे भारत वर्ष में दिगम्बर जैन साधुओं, श्रेष्ठियों पर उनका अच्छा प्रभाव था, व प्रतिष्ठा थी। _ मैंने अपने रिश्तेदार श्री ज्ञानचंदजी वड़नगर वालों को काम दिलाने की भावना से बुलाया और उन्हें जैनमित्र में रखवाकर स्वयं काम छोड़ दिया। यहाँ मेरे पड़ोस में कचहरी में मुन्शी श्री राणा साहब रहते थे। उनकी दो पुत्री तरू और मंजू। तरू सीधी सादी घरेलू लड़की थी। और मंजू फैशनेबल, चुलबुली और बिन्दाश्त लड़की थी। उनका हमारे परिवार के साथ घरोबा हो गया था। तरू बच्चों की बुआ थी तो मंजू मौसी। मंजू के इस चुलबुले पन का उसके युवा पुरूष मित्रोने दुरुपयोग भी किया। इस घरसे हमारे करीबी रिश्ते हुए।
सूरत में मुझे जैन समाज का भी भरपूर स्नेह और सन्मान मिला। 'जैनमित्र' में राष्ट्रीय स्तर के विद्वान पं. दामोदरजी सागरवाले, पं. परमेष्ठीदासजी ललितपुरवाले, एवं पं. ज्ञानचंदजी स्वतंत्र आदि जिस गद्दी पर बैठे थे मैं भी उसी गद्दी पर था। अतः समाजने मुझे एक विद्वान के रूप में इज्जत प्रदान की। उस समय सूरत इलेक्ट्रीसिटी में इन्जीनियर थे श्री मोदीजी, समाज के प्रतिष्ठित श्री जैनी साहब एवं पोप्युलर पब्लिकेशन के श्री नटुभाई आदि ।