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प्रतियों के वातायन
सिनेमा जाते तो पाँच आने की लाईन में घंटो खड़े रहते । टिकट प्राप्त करते । तिथि या त्यौहार पर अवश्य एक या दो रू. मिलते। जो हमें धनाढ्य होने का एहसास कराते । कभी-कभी पैसो की तंगी होने पर पिताजी की जाकिट की जेब में से चार आठाना निकाल लेने का पराक्रम भी करते । चार आने का ढोसा भद्रकाली के मंदिर के पास मद्रासी कॉफे में कई कटोरी दाल के साथ खाते और किसी पंचतारक होटल के सुख का आनंद मनाते ।
इस गरीबी - लाचारी में एक ही कल्पना होती काश ! हमारे पास एक बोरी गेहूँ होता, एक बोरी चावल, दश सेर शक्कर, एक डब्बा तेल । इतनी ही तो थी हमारी अमीर होने की कल्पना । उस समय पूरे विस्तार में फोन भी सिर्फ गोविंदप्रसादजी वैद्य के यहाँ या पटेल मील में था। दो आने देकर फोन करते थे। घर में कभी फोन हो इस स्वर्ग के सुख की कल्पना बनी रहती थी।
मुझे पता है कि सन् १९६१ बी. ए. तक घर में बिजली नहीं थी । सन १९६२-६३ में बिजली प्राप्त कर सके तो लगा घर में दिवाली ही आ गई है। पिताजी एक रेडियो, एक टेबल फेन ले आये । रेडियो तो हम लोग अपनी मरजी से सुन लेते। पर पंखा विशेष रूप से हारे थके आये पिताजी के लिए ही विशेष उपयोगी बनता। हमारे रेडियो से आसपास के लोग भी लाभान्वित होते। इस एक पंखे और रेडियो से ही हमें दूसरों के कुछ अधिक अमीर होने का एहसास होने लगा। मुझे याद है कि घर में कभी कोई विशेष मेहमान या किसी को जाँचने कोई डाक्टर
वैद्य आ जाय तो हम कुर्सी बगल से माँगकर लाते थे। हमारे पास कुर्सी तो थी नहीं। और होती तो उसे रखने को जगह कहाँ थी ? घर का आधा सामान तो दीवारों पर लगे पाटियों पर या मचान पर रहता । इसी नागौरी चॉल मेरे भाई-बहनों का जन्म हुआ और शादियाँ भी हुईं। हम सब इसी छोटे से घर में वैसे ही समा
जाते थे जैसे एक ही कमरे में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है। आज मुझे लगता है कि हमारा घर उस कहानी की पृष्ठभूमि सा था जहाँ भौतिक जगह तो कम थी पर हृदय में विशेष जगह थी ।
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घर में नौकर रखने का तो प्रश्न और विचार ही कैसे होता ? माँ ही सुबह ४ बजे से रात्रि के १०-११ बजे तक सभी कार्य स्वयं करतीं । नियमधारी पिताजी को खुद हाथ आटा पीसतीं । धार्मिक तिथि के दिनो में कुएँ दूर-दूर पानी लातीं । कच्चा घर होने से उसे गोबर से लीपतीं। यह सब वे बड़े ही उत्साह से करतीं। पिताजी से कड़वे व गुस्सेल स्वभाव से वे सदैव प्रताडित रहतीं। सबकुछ झेलने पर भी हम लोगों का पूरा ध्यान रखतीं। वह । सब लाड़ लड़ातीं जो एक गरीब माँ लड़ा सकती है। मेरी माँ स्वभाव से कुछ कड़क होने से हम सब लोगों को गलत कार्यों से बचाये भी रहतीं। क्योंकि चाली का माहौल कभी ऊँचे संस्कार नहीं दे पाता ।
जैसाकि मैंने कहा हमारे यहाँ लाईट नहीं थी। पढ़ना आवश्यक था । अतः मैं रात को उस बिजली के खंभे के नीचे बैठकर पढ़ता था जो म्युनिसिपालिटी द्वारा रोड़ पर लगाया गया था। जो कि मेरे घर के सामने ही था। उस समय कच्ची सड़क थी। लोगों का आना-जाना बहुत कम होता था । अतः मैं रात्रि को १० बजे से पाँच-छह घंटे उसी के प्रकाश में पढ़ता। दिन को स्कूल की छुट्टियों में हाथीखाई बगीचे में जाकर के पढ़ाई पूरी करता । इस प्रकार १९५६ में मैंने मेट्रिक की परीक्षा पास की।
स्थानांतर ( मकान बदलना)
हमारे पिताजीने अपनी गाढ़ी कमाई से जो भी बचत की उससे अमराईवाड़ी विस्तार में बन रही एक सोसायटी उमियादेवी नं. २ में एक मकान बुक कराया जो १९६९-७० में हमें प्राप्त हुआ। लगभग ८५ वर्ग गज के मकान | में चार कमरे थे, वरंडा चौक वगैरह सुविधा अच्छी थी। पर हमें अपनी पसंद का मकान न मिला। ड्रो में हमें कोने