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________________ | 116 ___इन्हीं खुमानलाल चौधरी के कुल तीन पुत्र थे। सबसे बड़े श्री दौलतलालजी, दूसरे मेरे दादाश्री रज्जूलालजी एवं तीसरे श्री हल्केलालजी। यद्यपि परिवार सुखी था, अच्छी खेती थी, लेन-देन था, पर कटेरा के पास तीन मील दूर स्थित अस्तारी गाँव जिसमें एक भी व्यापारी का घर नहीं था- पूरा गाँव किसानों का था। ये लोग अपना सारा लेन-देन कटेरा से ही करते थे। उन सबकी इच्छा थी कि उनके गाँव अस्तारी में भी एकाद व्यापारी का घर हो। किसानों के आग्रह से मेरे दादा चौधरी रज्जूलालजी ने वहाँ जाकर रहना स्वीकार किया। अपने परिवार के साथ वे अस्तारी गये। वहाँ अपना निवास तो बनाया ही खेती के लिये जमीन भी खरीदी और देव दर्शन का नियम होने के कारण छोटा सा चैत्यालय भी स्थापित किया। इस तरह अस्तारी गाँव में उनका स्थायी निवास हुआ और जिन चैत्यालय भी। इन्हीं चौधरी रज्जूलालजी ने अपने साढू भाई श्री पचौरीलालजी एवं अन्य रिश्तेदार श्री घुरकेलालजी को भी बुला लिया। इस प्रकार गाँव में जैनों के तीन घर हो गये। ___ चौधरी रज्जूलाल अपने तीनों भाइयों में सबसे सुंदर, गोरे चिट्टे, छह फुट से भी ऊँचे जवान थे। बड़ी-बड़ी मूछे, सिर पर बंधा हुआ साफा लोगों में उनके ठाकुर होने का भ्रम पैदा करता और इसीलिए अन्य गाँव के लोग उन्हें ठाकुर समझकर दाऊसाहब कहकर राम-राम करते थे। मकान भी गाँव के बीचोबीच था। अतः हर आनेजाने वाले को यहाँ से गुजरना ही पड़ता था और यह राम-राम की ध्वनि सर्वत्र गूंजा करती थी। दादाजी ने अस्तारी में खेती भी की, व्यापार भी किया और धीरे-धीरे स्थायी होते गये। उनके सरल स्वभाव, वाणी की मृदुता एवं गाँव के लोगों के सुख-दुःख में निरंतर सहायक बने रहने के कारण वे पूरे गाँव के 'साव दद्दा' बन गये। गाँव के सभी जाति के अबाल वृद्ध उन्हें इसी प्यार भरे नाम से पुकारने लगे। ___ खेती, व्यापार करते-करते घर समृद्ध हो गया। 'साव दद्दा' को घोड़े सवारी का शौक था। निरंतर अति स्वच्छ कपड़े पहनना, पगड़ी बाँधना उनके विशेष शौक थे। घर पर घोड़ा रखते। उसकी पूरी सेवा स्वयं करते और उसे बड़ा प्यार करते। कद्दावर कद, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूछे और घोड़े पर बैठे साव रज्जूलाल किसी ज़मीनदार । से कम रोबदार नहीं लगते थे। उनके चार पुत्र एवं चार पुत्री थीं। सबसे बड़े थे मेरे पिता श्री पन्नालालजी। उनके बाद श्री कमलचंदजी, श्री छक्कीलालजी एवं श्री मूलचंदजी। चार पुत्रियों में सबसे बड़ी थी श्रीमती बेटीबाई, श्रीमती ठगोबाई, श्रीमती केसरबाई एवं श्रीमती कस्तूरीबाई। इनमें अभी सबसे बड़ी श्रीमती बेटीबाई एवं श्री कस्तूरीबाई जीवित हैं। उनके चारों पुत्रों में आज एक भी जीवित नहीं हैं। ___ चौधरी रज्जूलालजी यद्यपि पढ़े-लिखे नहीं थे पर व्यवहार कुशल थे। स्वभाव से अति सरल बालकवत थे। वे मानते थे कि लड़के-लड़कियों को क्या पढ़ाना। लड़के बस पूजा पाठ करलें और हिंसाब-किताब लिख लें यह बहुत है। और लड़कियों को तो चूल्हे-चक्की में ही जुतना है। इसी कारण किसी लड़के-लड़की को शिक्षा नहीं दिलाई। गाँव में जो भी पटवारी का छोटा सा स्कूल था उसमें ही थोड़ी बहुत शिक्षा लड़कों को दिलवा पाये। परंतु बच्चों को उत्तम भोजन कराने एवं गहने आदि पहनाने से कभी नहीं चूके। - सन् १९५८, दिसंबर २४ की रात्रि में अपने साढ़ के लड़के की सगाई कराई। घर के द्वारे के अलाव के पास गाँव के लोगों के साथ रात्रि में १२ बजे तक तापते रहे, कहानियाँ सुनाते रहे बाद में जाकर सो गये। लगभग २ बजे अपनी पत्नी (हमारी दादी) से बोले 'देखो मेरी नाड़ी छूट रही है' बस इतना कहकर परलोक सिधार गये। वे स्वभाव के जितने सरल थे मृत्यु भी उतनी ही सरलता से उन्हें अपने आगोश में ले गई। यहाँ उनके जीवन के कुछ कठिन दुःखद क्षणों को भी उल्लेखित करना चाहूँगा। क्योंकि इन प्रसंगों की मेरे ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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