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पंजाब में जैन धर्म का उद्भव, प्रभाव और विकास
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पिछले दो सौ साल में हुए जैन मुनियों में पहला नाम गणि श्री बुद्धिविजय ( बुटेराय ) जी का है । इन्होंने स्थानकवासी परम्परा को त्यागकर तपागच्छीय दीक्षा ली । इनके सुविख्यात शिष्यों के नाम हैं आचार्य विजयानंदसूरि ( आत्माराम ), श्री वृद्धिविजय ( वृद्धिचंद) तथा गणि मुक्तिविजय (मूलचंद ) ये तीनों भी पूर्व में स्थानकवासी साधु थे । श्री बुद्धिविजयजी एवं अन्य मुनियों ने अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठाएं कराईं।
इससे आगे के क्रम में हैं, महान प्रभावक आचार्य श्री विजयानंदसूरि, प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी (समय ईसवी सन १८३६ से १८९५) । प्रो. हार्नेल सहित अनेक युरोपीय विद्वानों ने इनकी विद्वत्ता को सराहा है । ई. स. १८९३ में शिकागो - अमेरिका में होनेवाली वर्ल्ड पार्लियामेंट आफ रिलिजियंस में वे जैन धर्म के प्रतिनिधि - डैलिगेट और इसकी विषय समिति के सभ्य चुने गए थे । चूँकि विदेश जाना उनके लिये सम्भव नहीं था अतः तब अपने स्थान पर उन्होंने बैरिस्टर वीरचंद राघवजी गांधी को वहाँ भेजा था । परंतु भेजने से पहले ६ मास तक जैन धर्म के विविध विषयों की शिक्षा देकर दक्ष बनाया । पार्लियामेन्ट के उपरान्त विद्वान बैरिस्टर के युरोप तथा अमेरिका में जैन तथा अन्य भारतीय धर्मदर्शनों पर लगभग ५३२ लैक्चर हुए थे । वे प्रथम जैन थे जिन्होंने अमेरिका एवं युरोप में जाकर जैन धर्म के सिद्धांतो का प्रचार करना प्रारंभ किया । आचार्य विजयानंदसूरि ने पंजाब एवं अन्य प्रांतों में श्वेताम्बर
मूर्तिपूजक जैन श्रावक बडी संख्या में बनाए | श्रावकों तथा साधु-साध्वी द्वारा उपासना हेतु नूतन जैन : मंदिरों का निर्माण एवं पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया । उन्होंने शिक्षा प्रचार एवं प्रसार के लिए सरस्वती मंदिर बनाने का उपदेश दिया ।
Persons/Treasury of Books/Creation of Jain Literature
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में २३५ साल बाद आचार्य पद पर आसीन होनेवाले श्री विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) उच्चकोटि के विद्वान, वक्ता, कवि, प्रणेता व धर्मगुरु थे । इनके द्वारा रचित ग्रंथ अत्यन्त विपुल, प्रमाणिक, संदर्भसहित, सार्थक अकाट्य और समयानुकूल | रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं -
१. श्री नवतत्त्व २. श्री जैन तत्त्वादर्श ३. अज्ञान तिमिर भास्कर ४. सम्यकत्व शल्योद्धार ५. जैन मत वृक्ष ६. चतुर्थ स्तुति निर्णय- १, ७. चतुर्थ स्तुति निर्णय-२, ८. जैन धर्म विषयक प्रश्नोत्तर, ९. तत्त्व निर्णय प्रसाद, १०. चिकागो प्रश्नोत्तर, ११. ईसाई मत समीक्षा, १२. जैन धर्म का स्वरूप, १३. आत्म बावनी (पद्य), १४. स्तवनावली (पद्य), १५. श्री सत्तर भेदी पूजा (पद्य), १६. श्री वीस स्थानक पूजा (पद्य), १७. श्री अष्टप्रकारी पूजा (पद्य), १८. श्री स्नात्रपूजा (पद्य), १९. श्री नवपद पूजा (पद्य).
आचार्य विजयानंदसूरि का सम्पूर्ण काव्यसाहित्य अब 'आत्म- अमृतसार' ग्रंथ के रूप में छप चुका
है ।
उपरोक्त श्री विजयानंदसूरिजी के योग्य पट्टधर श्री विजयवल्लभसूरि ( समय ई. स. १८७० से १९५४) का नाम एक दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह है । पंजाब का क्षेत्र इनकी कर्मभूमि रहा तथा ये पंजाब केसरी कहलाए । पंजाब, राजस्थान, गुजरात तथा मुम्बई आदि में गुरुकुल, स्कूल, कालेज, महिला