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आगम प्रमाण
८. आगम तो श्रद्धा का ही विषय रहेगा । अतः तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान से भी पहले श्रद्धा को रखा है - सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः । हम तर्क से यह सिद्ध नहीं कर सकते कि अग्नि उष्ण है । यह तो अनुभवगोचर ही है ।
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अतः आचारांग सूत्र ने कहा
तक्का तत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, सव्वे स्वराः निवट्ठन्ति ।
उपनिषदों ने कहा नैषा मतिस्तर्केणापनेया ।
निष्कर्ष यह हुआ कि जैन मनीषियों ने सभी भावों को सापेक्ष माना एको भावः सर्वथा येन ज्ञातः सर्वे भाव: सर्वथा तेन ज्ञाताः सर्वे भावा: सर्वथा येन ज्ञाताः एको भावः सर्वथा तेन ज्ञातः इसका आधार केवलियों की वाणी है।
जे एंग जाणड़ से सव्वं जाणइ,
जे सव्वं जाणइ से एंग जाणइ ।
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दयानन्द भार्गव
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इस वाणी पर जिसकी श्रद्धा है वह सभी सत्यों को सापेक्ष मानता है और अनेकान्त का यही अर्थ समझता है कि सभी सत्य का आधार अनुभव है और / क्योंकि अनुभव में सर्वत्र सापेक्षता आती है अतः निरपेक्ष सत्य कुछ भी नहीं है ।
इस विषय में यह आपत्ति आयी कि फिर तो सापेक्षता सर्वतोग्राही होने से स्वयं ही निरपेक्ष हो गयी । . आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका यह उत्तर दिया कि पंचास्तिकायों का अस्तित्व निरपेक्ष है । अत: अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक होगा; न कि एकान्तात्मक ।
इसके विपरीत वेदान्ती के लिये 'नेहनानास्ति किंचन' की श्रुति प्रमाण है । अतः वह अनेकता को नहीं मानता प्रत्युत दृश्यमान अनेकता को द्वितीय श्रेणी का अर्थात् व्यावहारिक सत्य मानता है और वहाँ अनेकान्त की सत्ता को स्वीकार भी करता है ।
हमारा निष्कर्ष यह है कि जैन और वेदान्ती के मतभेद का कारण श्रद्धा है, आगम पर विश्वास है । उसमें साधुता - असाधुता का निर्णय तर्क के आधार पर नहीं किया जा सकता ।
इस निष्कर्ष की पुष्टि में हम दिगम्बर श्वेताम्बर के पारस्परिक मतभेद का प्रश्न लें । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही अनेकान्तवादी हैं । फिर ये दोनों अपना मतभेद अनेकान्तवाद की सापेक्षता के आधार पर मिटा क्यों नहीं लेते ? उत्तर यह है कि इन दोनों के आगम ही भिन्न भिन्न हैं । वे आगम उनकी श्रद्धा का विषय हैं । दोनों अपनी अपनी श्रद्धा के अनुकूल अचेलकत्व - सचेलकत्व के पक्ष में तर्क खोज लेंगे किन्तु किसका तर्क ठीक है, यह निर्णय कभी नहीं हो सकेगा क्योंकि यह मतभेद तर्क पर नहीं, श्रद्धा पर टिका है । दोनों को अपने अपने तर्क ठीक नज़र आते हैं क्योंकि तर्क तो एक निमित्त है, असली कारण श्रद्धा है । मतभेद तर्क के कारण नहीं, श्रद्धा के कारण है । सभी पक्ष अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार तर्क खोज लेते है ।
तर्क की पकड़ से परे -