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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
जीवन
साहित्य-सेवा-भावना का चिरकाल पर्यंत ज्वलन्त प्रमाण रहेगा। इस में देशविदेश के एक सौ से उपर प्रसिद्ध विद्वानों के विविध जैन विषयक गम्भीर, तलस्पर्शी, विषयपूर्ण निबन्ध हैं । 'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' इस कहावत का अक्षरशः अनुभव इन पंक्तियों के लेखक को इस प्रन्थ के सम्पादन एवं प्रकाशन-काल में जो हुआ है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि महान् कार्यविषयक प्रस्ताव पास कर लेना सहज है, उसको प्रारंभ कर देना भी कुछ सहज है, परन्तु उसको सत्यरूप में, अपने कलेवर में बाहर ला देना साधारण पुरुषों का कार्य नहीं। आप महान् धैर्यवन्त, समयज्ञ, दृढ संकल्पी, नीतिनिपुण हैं और सर्व से ऊपर अपने महान् आदर्श पर अन्त में आ पहुंचना आपकी विशेषतायें हैं।
राजगढ में हुआ श्री राजेन्द्रसूरि-अर्धशताब्दी महोत्सव आपके जीवन के संध्या काल की महान् संस्मरणीय घटना है । स्मृतिग्रन्थ उसका सदा प्रमाण रहेगा।
मैंने सन् १९३८ से सन् १९५८ के प्रारंभ तक जो आपके गुणों का दर्शन किया वे अनुकरणीय हैं और प्रेरणादायी होने के कारण निम्नोल्लिखित हैं ।
(१) दिन में जब भी विराजमान् देखा, लिखते ही देखा । (२) विचारों में दृढ़ देखा और संकल्प में ध्रुव देखा । (३) पुरुष की परीक्षा की आप में अद्भुत शक्ति देखी । (४) संघर्ष में हँसते देखा ओर कठिनाई में बढ़ते देखा ।
(५) कई बार अनेक जैनाचार्य एवं साधु-मुनियों को हमने श्रीमंत, कवि, पंडित, राजनीति-पुरुष, सत्ताधारियों के प्रभाव से निस्तेज होते, उनसे मेल-प्रेम दिखाने का प्रयत्न करते देखा है; परन्तु यहां वह ही सरलता, सौम्यता जो एक जैनाचार्य में रहनी चाहिए, मैंने तरती देखी।
(६) सभा के योग्य भाषा में बोलते देखा- 'ब्याख्यान-वाचस्पति' उपाधि आपके साथ पूर्ण सार्थक है।
(७) आपके कर एवं वचनों से उसी को मान, सत्कार मिला जो व्यवहार में निष्कपट उतरा और चरित्र में स्वर्ण ।
संक्षेप में आप एक सफल जैनाचार्य हैं जिन्होंने अपने चरित्र, न्यायनीति, आचार-व्यवहार, साहित्य-साधना, धर्मभावना, धर्मक्रिया, समाजसेवा, विद्याप्रेम से अपने मुनि-उपाध्याय एवं आचार्यकाल में अपनी शक्ति-योग्यता-तत्परता से जैन शासन की सेवा करने में अहिनिश योग दिया है, समाज का गौरव ऊपर उठाया है और विश्वविख्यात् स्व० राजेन्द्रसूरि महाराज के मिशन को सफल उद्देश्य किया है।
आपश्री का सविस्तार जीवन-परिचय पाने के लिये 'गुरु-चरित' पढने का आग्रह है।
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