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विषय खंड
पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि
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नासिक, सातारा के निकटवर्ती मांगीतुंगी पर्वत के बनों में आपके ऐसे ही तप किए जाने के उल्लेख मिलते हैं । आपका समाधियोग निर्मल एवं स्वरोदय ज्ञान प्रशस्त था । समाधियोग में आपको अप्रत्यक्ष कई बातों का साक्षातकार होता था ऐसा पाया गया है । मालवा के सुप्रसिद्ध नगर कृकसी के प्रलयंकारी अग्निप्रकोप; छप्पन के दुष्काल एवं अपने देहावसान संबन्धी आपने जो-जो पूर्व -वचन कह दिए थे वे अक्षरक्षः सत्य उतरे थे। दोषरहित आहार ही उन्हें ग्राह्य था । गोचरी लानेवाले उनके शिष्यगण इस विषय में अत्यन्त सावधान रहते थे । भले उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता । दिन में नींद लेना उन्हें बड़ा अप्रिय था । दिवा-निद्रा को वे एक प्रकार का ऐश मानते थे । और साधुत्व का ऐश से भला क्या संबंध ? कर्म - रत मानव दिन में सो जाय तो फिर काम कब हो सके ? सामने कार्यों का अपरिमित तांता लगा रहता था। एक योगी की भांति रातमें भी वे स्वल्प नींद लिया करते थे । अंधेरी रात में भी वे रोशनी में नहीं बैठते थे । दीपक के प्रकाश में बैठना वे साध्वाचार के प्रतिकूल मानते थे। इन्हीं सब आदशों का पालन गरुदेव के शिष्यगण अविछिन्न रूप से किए जा रहे हैं । जो सत्य ही अनुकरणीय एवं धन्दनीय है।
गुरुदेव को प्रमाद तनिक भी पसन्द न था। वर्षावास संपूर्ण होते ही वे विहार आरंभ कर देते थे। और अकारण किसी स्थान में नहीं पड़े रहते थे । स्वावलंबन उन्हें प्रिय था । स्वल्प परिग्रही ही सुखपूर्वक स्वावलंबन मार्ग पर चल सकता है।
और लोभ की तो थाह नहीं ! इसी लिए उन्होंने परिग्रह का प्रबल विरोध किया था विहार में अपनी उपधियों को वे स्वयं उठालिया करते थे। उनके समय में वर्तमान की भांति साधुओं की अपनी उपधि-असबाब उठाए फिरने के लिए मजदूर तथ गाडियों की जरूरत न हुई थी। आज के हर साधु प्रायः चाकू-कैची, सूई-दौरा, कार्ड, कवर, पेंसिल, निर्झरलेखनी, घड़ी, चश्मे आदि अपने पास रखना परिप्रहमूलक नहीं समझते है। किन्तु श्री राजेन्द्रसूरि और उनकी परंपरा के संबन्ध में कहा जाता है कि सईचाक तो क्या? वे दावात, पैंसिल या फाउन्टेनपेन जैसे शानोपकरण भी परिग्रहमलक समझते थे। श्री राजेन्द्रसूरि का विवेक स्याही में पड़े रहनेवाले जल के संबन्ध में भी इतना जाग्रत था कि ये दवात के बदले एक छोटी टोपारी (नारियल से गिरि निकाल लेने के पश्चात् अवशिष्ट कड़े छिलके की कटोरी नुमा टोपली) में गाढे रंग की स्थायी से सराबोर कपड़ा रखते थे। जिसे आवश्यकतानुसार तनिक पानी डाल कर पतौर स्याही के प्रयुक्त किया जाता था और सूर्यास्त पूर्व ही उसे सुखा दिया जाता था।
ददानी भी सुखा दी जाती थी। गेंददानी और स्याही रात भर बिना सुखाए रखने पर उनमें जीवाणु पैदा हो जाते हैं । सचित्त-अचिस का वे कहां तक विवेक रखा करते थे - यह इससे भली भांति प्रकट है ।
धातु-पदार्थ का वे स्पर्श नहीं करते थे। निब का प्रचलन तो उन दिनों में था ही नहीं । कलम भी वे स्वयं न बना कर किसी भावक से बनवा लिया करते थे । आत्म
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