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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
-विविध
" वाला वयंति एवं वेसो, तित्थंकराण एसो वि । ___णमणि ऽ जोधिद्धी अहो, सिरसूलंकस्स पुक्करिमो” ॥ ७६॥ दशदश शताब्दियों के अनन्तर जैन समाज पुनः उन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा था । श्री रत्नविजयजी अपने सिर - शूल की पुकार किसके आगे करते ? समाजोत्थान के लिए सातत्य पर्यालोचन से उनकी सुप्त क्रांति जाग उठी । दफ्तरीपन में अब उनका दम घुटने लगा । पथभ्रष्ट यतिगण और श्रावक समुदाय को पुनः शास्रोचित प्रकृत मार्गपर आरूढ करने को वे लालायित हो उठे। अबतक आत्मवंचना का माग उन्होंने जो अपना रखा था उसका उन्हें बहुत परिताप हुआ । इसके प्रायश्चित का उन्होंने संकल्प किया । अमात्योचित दफ्तरीपद के वैभव-विलास को तिलांजलि देकर पुनरुद्धार हेतु वे कटिबद्ध हो उठे। उन्होंने प्रण किया कि बढती हुई मित्थात्त्व की प्ररूपणा का खण्डन करना चाहिए । जिस के लिए जैसा श्री अभयदेव सूरिजीने साहमीवच्छल कुलक में फरमाया है :
रूसउवा परो मा वा, विसं वा परियट्टर ।
भासियव्वा हियाभासा, सपक्ख गुण कारिया ॥ लोक प्रसन्न हों या अप्रसन्न, भाषण ऐसा किया जाय जो आत्महितकर हो। पर्युषण की उस पवित्र रात में उन्होंने पुनरुद्धार के परिष्कार की रूपरेखा को निश्चित किया । उन्हें एक नई, किंतु सही दिशा के दर्शन हुए। लंबी अनिद्रा से अलसाइ आखों में एक दिव्य प्रकाश की झलक चमक उठी। सहसा उपाश्रय के पड़ोस में मन्दिर के धंट बजने का घोष हआ। श्री रत्नविजयजीने खिड़की का पर्दा उठा कर देखा तो पूर्व दिशा में पौ फट रही थी और अंधकार का काला पट चीरकर प्रकाश प्राची को ज्योतिर्मय बना रहा था।
घाणेराव (गोडवाड़-मारवाड़ ) के वर्षावास की यह बात है । पर्युषण के दिन थे । सदैव की अपेक्षा पर्युषणों में तपस्या की बड़ी धूम रहती है। साल भर में कभी भी 'पच्चक्खाण' न करने वालों में भी मन - कुमन से इन दिनों में प्रत्याख्यान करने की भावना जाग्रत हो उठती है। प्रच्छन्न वैभव-भोग और बन्धजन्य नाना प्रवृत्तियों में लिप्त रहने वाले लोग भी पर्युषण अन्तर्गत कुछ न कुछ तप अवश्य करते पाए जाते हैं। श्री पूज्यजी का चातुर्मास ! तपस्या-सर छलाछल छलक रहा था । लोग शान-ध्यान, पूजा-व्रत में उल्लास से व्यस्त थे। व्याख्यानों की धूम थी। कल्प-सूत्र श्रवन का सुयोग भला कौन चकता । भगवान् महावीर के दीक्षा-कल्याणक का व्याख्यान श्रीपूज्यजी के जयघोष के साथ पूर्ण हुआ। व्याख्यान - रस से संतृप्त लोकसमूह स्वस्त होकर गुरुचरण स्पर्श करने के लिये उमड़ा । परन्तु सहसा श्रीरत्नविजयजी व्याख्यान -पीठिका से उतर कर श्रीपूज्यजी के निकट चल पड़े।
श्री पूज्यजी का बैठक-कक्ष विविध रंग के चन्द्रवें और पर्दे-तोरण तथा वन्दनवारों से सुसज्जित था। श्रावकों के घरों में से उत्कृष्ट शोभा-सामग्री उस
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