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श्री यतीन्द्ररि अभिनंदन ग्रंथ
· · विविध
अपने यतिसमुदाय में हुआ करता था। श्रीपूज्य एवं उनके दफ्तरीजी की आज्ञा की अवगणना करने का दुस्साहस उन दिनों कौन कर सकता था? श्री रत्नविजयजी की कार्य-कुशलता से धरणेन्द्रसूरि का अति प्रभाव बढ़ा था और उनकी हार्दिक इच्छा रहती थी कि रत्नविजयजी मेरे दफ्तरी का दायित्त्वपूर्ण पद बराबर सम्हाले. रखे । धरणेन्द्रसूरि कई नृप एवं अमात्यों द्वारा मान्य थे । अतः शेठ, शाहूकार, राजकर्मचारी सभी इनके हुक्म को मानने में सम्मान समझते थे । स्वयं श्री पूज्यजी भी आपका यथोचित आदर करते थे।
श्री रत्नविजयजी दफ्तरी का कार्य तो करते थे लेकिन उन्हें यह सब दम्भाचरण प्रतीत होता था । वे केवल साध्वाचार के सूत्र रटकर ही इति नहीं मानते थे । उन्होंने संस्कृत-प्राकृत के व्याकरण, कोश, काव्य, कथा और आगम - सूत्र. अंग-उपांग आदि श्रुत वाङ्मय की प्रत्येक शाखा का उत्कट अध्ययन किया । उनमें ये भाव अंकुरित हुए कि क्या मिथ्यांडम्बर केवल इसलिए वहन किया जाय कि जिससे भद्रजनसमुदाय अंधेरे में रहे और हम राजभोग, ऐशो-आराम में पगे रहें, स्वयं त्याग मार्ग पर न चले और जन-साधारण को त्यागमार्ग पर चलने का उपदेश दें - यह वंचना नहीं तो क्या ? इसकी क्या सार्थकता ? जब श्रोताओं को घंटों तर्क-वितर्क युक्त व्याख्यान सुनाने पर भी उपदेशक के भावों में परिवर्तन न हो, फिर ये चातुर्मास या स्थिरवास क्या होते है ! श्रावकों को खड़े पैर तैनात रहना पड़े कि कब श्री पूज्यजी का हुक्म हो और उसके परिपालन में विलंब होने पर कहीं संघ को गुरु-क्रोध के अमंगल का भाजन तो नहीं होना पड़े ? “देवैरुष्टाः गुरुखाता; गुरौरुष्ट न कश्चन" धर्मभीरू श्रावकों की इस विवशता पर उनका करुणाई हृदय तड़प उठता था।
वे विचार करते कि व्याख्यान होते हैं, प्रभावनाएँ बंटती हैं, महा जयघोष होते हैं, धासे बजाये-गाए जाते हैं, पर सब व्यर्थ । कई बार वे अंतर्मुख हो कर हृदय टटोलते और उन्हें अपनी दिनचर्या और यति-समाज के आचार-विचार पर बड़ा क्षोभ होता कि अनासक्त यति जीवन-लालसाओं में कितना लुब्ध हो गया है । उसके इस उन्माद का अन्त कहां होगा? यह भी उन्हें समस्यामूलक प्रतीत होता । व्याख्यान के अंतर्गत अपरिग्रह और आत्मनिग्रह, चरित और संयम, त्याग और तप, कायक्लेष और कषायहीनता आदि विषयों पर विभिन्न पहलुओं से सुन्दर निरूपण करने वाले यतिओं की पतित जीवन-चर्या पर उन्है मनस्ताप होता। वे उन गुरुओं में नहीं थे जो स्वयं बैंगन आरोग कर औरों को उपदेश दिया करें। उन्हें यह इतिहास अज्ञात नहीं था कि बौद्ध धर्म, जिसके विशाल साहित्य ने अधिकांश दुनिया को अप्रत्यक्ष भाव से प्रभावित किया था, धारिणी मंत्रों और यंत्रों का शिकार होकर जहां से उद्भूत हुआ था वहीं विलय भी हो गया !! जैन धर्म में अवती कषाय युक्त देव-देवियां की उपासना ने अवांछनीय स्थान प्राप्त कर लिया था। उस धुन से अज्ञान एवं अंधश्रद्धा बढ़कर बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म के सर्वनाश का भी सृजन ही करेगी।
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