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सम्राट अकबर का अहिंसा प्रेम
ले:-प्रतापमल सेठिया मंत्री:-श्री. जिनदत्तसूरि सेवासंघ, बंबई
विक्रम संवत् १६४७ का समय था । एक दिन सम्राट अकबर ने मन्त्री करमचन्द को कहा कि इस समय जैन में जो महान् विद्वान् प्रभावशाली साधु हो उनका मैं दर्शन करना चहाता हूँ, तुम उन्हें बुलावो। करमचन्द की दृष्टी शीघ्र आचर्य महाराज श्री जिनचन्द्रसूरि जी की ओर गई। इनका जन्म सं. १५६५ में हवा था और मात्र ९ वर्ष की अल्प आयु में ही आप ने वैराग्य प्राप्त कर दिक्षा ग्रहण करली थी। १७ वर्श की आयु में तो संघ ने आपको आचार्यपद से विभूषित कर सर्व संघ के महान् उत्तरदायित्व का भार आप के सुपर्द कर दिया था। इस पर से ही आप इनकी विद्वत्ता का अनुमान कर सकते हैं।
इस समय आप पाटण में विराजते थे। मन्त्रीश्वर ने सम्राट की इच्छा का कथन करते हुये आप को लाहौर पधारने का आग्रह किया। सूरिजी महाराज ने भी लाभ का कारण जानकर शीघ्र विहार कर १६४८ के फाल्गुण शुक्ल २ को ३१ साधुओं के साथ लाहौर में प्रवेश किया । सम्राट् आप से प्रतिदिन उपदेश सुनता था ।
___ एक दिन किसी नवरंग खा नामक व्यक्ति ने द्वारका के जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया। यह खबर जब सूरिजी महाराज को हुई तो सूरिजी महाराज ने सम्राट् को मन्दिर
और तीर्थ के महात्म्य को इस प्रकार समझाया कि शीघ्रही सम्राट्ने शाही सिक्के से एक फरमान प्रकाशित कर दिया। जिसमें लिखा था कि आज से समस्त जैन तीर्थ मन्त्रीश्वर के आधीन कर दिये गये हैं।
एक समय जब सम्राट् काश्मीर विजय करने को प्रस्थान कर रहा था सूरिजी ने जीवदया पर प्रभावशाली उपदेश दिया। उससे सम्राट् को हृदय दया से ओतप्रोत हो गया और प्रति वर्ष आशाढ़ शुक्ल ८ से पूर्णीमा तक अपने १२ सूबों में समस्त जीवो को अभयदान देने का फरमान प्रकाशित करवाता था। उन फरमानों में से मुलतान के सूबा के नाम का फरमान खो जाने से दूसरा फरमान उस की पुनरावृत्तिमें संवत १६६० में लिखकर दिया जो आज भी लखनऊ में खरतर गच्छ के भन्डार में विद्यामान है । फरमान पारसी में है। उसकी नकल इस प्रकार है।
"शुबे मुलतान के बडे - बडे हाकिम जागिरदार करोडी और सब मुत्सर्प कर्मचारी जानले कि हमारी यही मानसिक इच्छा है कि सारे मनुष्यो और जीवजन्तुओ को शुखमिले जिससे सब लोक अमन चेन में रहकर परमातमा कि आराधना में लगे रहे
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