________________
श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
का पता लगाना अशक्य था । आकृति ४ करीब १८ ईच ऊँची है और आकृति ५ करीब १६ इंच ऊँची है । आकृति ४ के पीछे का लेख जो आकृति ४ अ में दिया गया है वह इस तरह है
२१०
(१) ॐ देवधर्मोयं रुयकसंनिवेसित देवद्रोण्णां द्रोणश्रावके
(२) न सं ९२६ श्रावण शुदि ५ जीयटपुत्रे ण ।
अतः यह प्रतिमा वि. सं. ९२६ ( ई. स. ८६९-७० ) में प्रतिष्ठित हुई। जीयटपुत्र आकृति नं. ५ वाली दूसरी प्रतिमा भी बनवाई प्रतीत होती है (देखो लेख, आकृति नं. ५ ) ऐसा उसके लेख से प्रतीत होता है.
-
(१) ऊँ द (दे) व धम्र्मोयं यक्षश्रावक जीयटपुत्रेण
(२) कारितोयंजिनत्रयः ॥ सं० ९२६ श्रावण वदि ५
ये दोनों प्रतिमायें गुर्जर - प्रतीहार राजा मिहिर भोज के राज्यकाल की होने से इस प्रतापी राजा के समय की पश्चिम भारतीय कला का हमें विश्वसनीय अच्छा खयाल आता है ।
आकृति नं ६ वाली प्रतिमा भी करीब इसी समय की है । आकृति ७ वाली प्रतिमा छोटी है; मगर वह भी करीब सं० ८५० आसपास की हो सकती है ।
एक छोटी सी धातुप्रतिमा जो श्री आदीश्वर की है ( आकृति नं. ८ ) वह भी वसन्तगढ से मिली थी। उसकी पीठ ( Pedestal) के मध्य में धर्मचक्र और दोनों बाजू पर एक-एक ऋषभ हैं। करीब ६-७ वीं सदी की प्रतिमाओं में धर्मचक्र के दोनों तरफ हरिणयुगल के बजाय तीर्थंकर के लांछन रकखे गये देखने में आये हैं । इस प्रतिमा में भामंडल की रचना का प्रकार स्मरण में रखने योग्य है । यह प्रकार पीछे के समय में पश्चिम भारत में ज्यादा प्रचलित न रहा; किन्तु गोलाकृति या ईपत्लंब अन्य जो हमें अकोटा की प्रतिमाओं से मिलता है वह प्रचलित रहा । यह बात स्पष्ट है कि यह प्रतिमा ई. स. ८५० की बड़ी प्रतिमाओं ( आकृति० ४, ५, ६ ) से प्राचीन है । मुखाकृति, शरीर का प्रमाण और रचना आदि से यह भी स्पष्ट है कि यह पश्चिम भारतीय कलाशैली की है। इसका निर्माणकाल अनुमान से ई. स. ७०० - ७२५ या कुछ पूर्व हो सकता है-पीछे नहीं ।
वसन्तगढ़ से एक सुन्दर प्रतिमा पिंडवाडा में आयी है जो करीब १५.५ ईच ऊँची है । यह छोटी सी मनोश प्रतिमा श्रुतदेवता या सरस्वती ( आकृति ९ ) की है। एक हाथ में पद्म और दूसरे में पुस्तक है । विकसित पद्म पर खड़ी देवी के दोनों तरफ पूर्णकलश हैं जो मथुरा की कुषाणकालीन सरस्वती की प्रतिमा में परिचारक के हाथ में देखे जाते है । प्रतिमाविधान या मूर्तिशास्त्र ( Iconography ) की दृष्टि से यह प्रतिमा प्राचीन रूढि का अनुसरण करती है। सरस्वती के ऐसे प्राचीन स्वरूप
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org