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________________ २०८ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध - - गुप्त-साम्राज्य को हूणों के आगमन से जो आघात लगा तो उस भारतीय विद्या और लाविषयक प्रवृत्ति को भी थोड़ा सा आघात हआ। उसके परिणामस्वरूप गुप्तों की राजधानी छोड़कर कुछ पण्डित और कलाकार गुप्तों के सामन्तों के पास या गुप्तों के दूरवर्तीसीमावर्ती-प्रदेशों में चले गये । थोड़े ही समय में भारतीय पुनरुत्थान हुआ। गुप्त सम्राट की पहिली समृद्धि तो न रहीं, किन्तु उनके प्रादेशिक अधिकारी, सामन्त आदि जो ज्यादा शक्तिशाली होने लगे, निश्चित रूपसे राज्यशासन और विद्याकलाके नये केंद्र बना सके। सौराष्ट्र में वलभी में ऐसा एक केन्द्र बना। मैत्रकों के शासन में वलभीपुर एक बड़ा विद्या और कला का केंद्र बना । मैत्रकों के ताम्रपत्रों से हम देख सकते हैं कि बौद्ध आचार्य स्थिरमति जैसे महापंडित वलभी में थे । जैन आचार्य मल्लवादी भी वलभी में थे। कई बौद्ध विहारों को दानं दिये गये का उल्लेख ताम्रपत्रों में मिलता है । और मैत्रकों का साम्राज्य करीब २००-- २५० वर्ष तक चला। ऐसे केन्द्र में मरुदेश के कलाकार शारंगधर को राज्याश्रय मिलना ज्यादा समुचित लगता है। ___ प्राचीन पश्चिम भारतीय कला (School of Ancient West) के प्राचीन नमूनें अब हमें मिले हैं। अकोटा की जीवन्तस्वामी की धातुप्रतिमा जो करीब ई. स. ६०० या इससे कुछ पूर्व की (ई. स. ५५० आसपास की) है - इसी शैली की ह । ऊँची दीवारवाली ईरानी अनशक टोपी (पाद्य) जैसा, किन्तु पन से अलङ्कत, मुकुटयुक्त इस प्रतिमा में महावीर स्वामी ने जो धोती पहनी है वह पश्चिमी भारत के शिल्पों में सबसे ज्यादा प्रचलित ढंग की है और इस में पाटली का एक हिस्सा बायें उस (जंघा) प्रदेश पर जाता है। ऐसे ढंग से या तो धोती ही पहनी जाती है या एक अलग पर्यसत्क लगाया जाता है । - इसी कला का एक और मनोश धातुशिल्प है जो मीरपुर से मिली हुई ब्रह्मा की प्रतिमा है । अभी वह करांची के संग्रहालय में है (देखो, ( Indian Metal Sculpture, by Chintaimoni Car fig, 3)। यह शिल्प भी गुप्त कला की छायायुक्त होने पर भी इसी नयी शैली का है। जयपुर प्रदेश में आबानेरी से मिले हुए सुन्दर शिल्प अभी lalit-Kala, no. 1 में प्रसिद्ध हुए हैं । इनमें Plate, Lxll, fig.7 में एक स्त्रीपुरुष की युगलमूर्ति है जो करीब ई० स० ६००-६५० की है। यहाँ स्त्री- आकृति की वेशभूषा में वह पर्यसत्क स्पष्ट दिखाई देता है। बाग की गुफाओंकी चित्रकारी, शिल्पकारी इसी शैली की है । इस कलाशैली में पांचवी सदी की गुप्तकला की प्राधान्यतः छाया होने से सामान्यतः ऐसे चित्र और शिल्प गुप्तकला के नमूने माने गये थे; किन्तु उत्तरकालीन और पश्चिम भारतीय कलाकी विशेषताओं को देखकर अब ऐसे चित्र और शिल्प का फिर सूक्ष्म निरीक्षण कर के निर्णय करना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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