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विषय खंड
अंग विज्जा
हुए), जंगली प्रदेश में बसे हुए गहणनिविट्ठ, उससे विपरीत आरामबहुल (बागबगीचों वाले अं. पार्कसिटी) नगर, ऊँचे पर बसे हुए उद्धनिविट्ठ, नीची भूमि में बसे हुए, निविगदि (संभवतः विशेष गंध वाले), या पाणुप्पविट्ट (चांडालादि जातियों के वासस्थान; पाण=श्वपच चांडाल, देशीनाममाला ६३८)। प्रसन्न या अतीक्ष्ण दंड और अप्रसन्न या बहुविग्रह, अल्प परिक्लेश और बहु परिक्लेश नगर भी कहे गये हैं। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर दिशाओं की दृष्टि से अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्षों की दृष्टि से भी नगरों का विभाग होता था। बहुअन्नपान, अल्पअन्नपान, बहुवतक (बहुवात या प्रचंड वायु के उपद्रव वाले) बहउण्ह (अधिक उष्ण) आलीपणकबहल (बह आदीपन या अग्निवाले), बहूदक बहुवृष्टिक, बहूदकवाहन नगर भी कहे गये हैं। (पृ० १६१-१६२)
तीसवाँ अध्याय आभूषणों के विषय में है। पृ० ६४७१ और ११६ पर भी आभूषणों का वर्णन आ चुका है। आभूषण तीन प्रकार के होते हैं । (१) प्राणियों के शरीर के किसी भाग से बने हुए (पाणजोणिय), जैसे शंख - मुक्ता, हाथीदांत, जंगली भैंसे के सींग आदि, बाल, अस्थि के बने हुए; (२) मूलजोणिमय अर्थात् काष्ठ, पुष्प, फल, पत्र,
आदि के बने हुए; (३) धातुयोनिगत जैसे-सुवर्ण, रूपा, तांबा, लोहा, त्रपु (रांगा), काललोह, आरकूड (फूल, कांसा), सर्वमणि, गोभेद, लोहिताक्ष, प्रवाल, रक्त क्षारमणि (तामड़ा), लोहितक आदि के बने हुए । श्वेत आभूषणों में चांदी, शंख, मुक्ता, स्फटिक, विमलक, सेतक्षार मणि के नाम हैं । काले पदार्थों में सीसा, काललोह, अंजन और कालक्षार मणि; नीले पदार्थों में सस्सक (मरकत) और नीलखार मणि; आग्नेय पदार्थों में सुवर्ण, रूपा, सर्वलोह, लोहिताक्ष, मसारकल्ल, क्षारमणि । धातुओं को पीटकर, क्षारमणि को उत्कीर्ण करके और रत्नों को तराशकर तथा चीर-कोर कर बनाते हैं । मोतिओं को रगड़कर चमकाया जाता है।
- इसके बाद शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के गहनों की सूचियाँ हैं । जैसे सिर के लिए ओचूलक (अवचूलक या चोटी में गूंथने का आभूषण, चोटीचक्क), पंदिविणद्धक (कोई मांगलिक आभूषण, संभवतः मछलियों की बनी हुई सुनहली पट्टी जो बालों में बांई ओर सिर के बीच से गुद्दी तक खोंस कर पहनी जाती थी जैसे मथुरा की कुशाणकला में स्त्री- मस्तक पर मिली है), अपलोकणिका (यह मस्तक पर गवाक्षजाल या झरोखे जैसा आभूषण था जो कुषाण और गुप्तकालीन किरीटों में मिलता है। सीसोपक (सिर का वोर); कानों में तालपत्र, आबद्धक, पलिकामदुधनक (दूधण या मुंगरी की आकृति से मिलता हुआ कान का आभूषण), कुंडल, जणक, ओकासक (अवकाशककान में छेद बड़ा करने के लिए लोढ़े या डमरू के आकार का), कण्णेपुरक, कण्णुप्पीलक (कान के छेद में पहनने का आभूषण)-इन आभूषणों का उल्लेख है । आँखों के लिए अंजन, भौंहों के लिए मसी, गालों के लिये हरताल, हिंगुल और मैनसिल एवं ओठों के लिए अलक्तक राग का वर्णन है । गले के लिये आभूषणों की सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं। जैसे वणण्मुत्तक (=सुवर्णसूत्र), तिपिसाचक (त्रिपिशाचक अर्थात् ऐसा आभूषण जिसके टिकरे में तीन पिशाच या यक्ष जैसी आकृतियां बनी हों),
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