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________________ विविध १७० श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ ज्ञात होता है जिसमें एक सिंह के मुख की आकृति बनी रहती थी और उसके मुख में से मोतियों के झुग्गे लटकते हुए दिखाए जाते थे । मथुरा की मूर्तियों में ये स्पष्ट मिलते हैं । गरुडक और मगरक ये दो नाम मथुराकला में पहचाने जा सकते हैं । मथुरा के कुछ मुकुटों में गरुड़ की आकृतिवाला आभूषण पाया जाता है । मंगरक वही है जिसे बाणभट्ट और दूसरे लेखकों ने मकरिका या सीमंत- मकरिका कहा है । दो मकरमुखों की आकृतियों को मिलाकर यह आभूषण बनाया जाता था और दोनों के मुख से मुक्ताजाल लटकते हुए दिखाएँ जाते थे । इसी प्रकार बैल की आकृतिवाला वृषभक, हाथी की आकृतिवाला हत्थिक और चक्रवाक - मिथुन की आकृति से युक्त चक्रकमिथुनक ( चक्कक मिहुणग) नामक आभूषण होता था। हाथ के कड़े और पैरों के खडवे, णिडालमासक [ माथे की गोल टिकुली ], तिलक, मुंहफलक [मुख फलक ], विशेषक, कुंडल, तालपत्र, कर्णापीड, कर्णफूल, कान की कील और कर्ण - लोढक नामक आभूषण ठेठ कुशाणकाल में व्यवहार में आते थे । इनमें से कर्णलोढक बिलकुल वही आभूषण है जिसे अंग्रेजी में वोल्यूट [ volute ] कहते हैं और जो मथुरा की कुशाणकालीन स्त्री-मूर्तियों में तुरंत पहचाना जा सकता है । यह आभूषण फिर गुप्तकाल में देखने नहीं आता । यूर, तलव, आमेढ़क, पारिहार्य ( विशेष प्रकार का कड़ा), वलय, हस्तकलापक, कंकण ये भी हाथ के आभूषण थे । हस्तकलापक में बहुत सी पतली चूड़ियों को किसी तार से एक में बाँधकर पहना जाता था, जैसा मथुरा शिल्प में देखा जाता है । गले के आभूषणों में हार, अर्धहार, फलहार, वैकक्षक, ग्रैवेयक का उल्लेख है । सूत्रक और स्वर्णसूत्र, स्वस्तिक और श्रीवत्स नामक आभूषण भी पहने जाते थे । किन्तु इन सब में महत्त्वपूर्ण और रोचक अष्टमंगल नाम का आभूषण है । वाण ने इसे ही अष्टमंगलक माला कहा है और महा - व्युत्पत्ति की आभूषणसूची में भी इसका नाम आया है । इस प्रकार की माला में अष्टमांगलिक चिह्नों की आकृतियाँ रत्नजटित स्वर्ण की बनाकर पहनी जाती थीं और उसे विशेष रूप से संकट से रक्षा करने वाला माना जाता था । सांची के तोरण पर भी मांगलिक चिह्नों से बने हुए कठुले उत्कीर्ण मिले हैं। मथुरा के आयागपट्टों पर जो अष्ट मांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं, वे ही इन मालाओं में बनाए जाते थे । श्रोणिसूत्र, रत्नकलापक ये कटिभाग के आभूषण थे 1 गंडक और खत्तियधम्मक पैरों के गहने थे । खत्तियधम्मक वर्तमान काल का गूजरी नामक आभूषण ज्ञात होता है, जो एक तरह का मोटा भारी पैरों से सटा हुआ कड़े के आकार का गहना है । पापढक [ पादवेष्टक ], पैरों के खडवे, पादकलापक [ लच्छे ], पादमासक [सुतिया कड़ी जिसमें एक गोल टिकुली हो ] और पादजाल [ पायल ]- ये पैरों के आभूषण थे । मोतियों के जाले आभषणों के साथ मिलाकर पहने जाते थे जिनमें बाहुजालक, उरुजालक और सरजालक [ कटि भाग में पहरने का आभूषण जिसे गुजराती मैं सेर कहते हैं ] का विशेष उल्लेख है । बर्तनों ( पृ० ६५ ) में थाल, तश्तरी ( तट्टक ), कुंडा (श्रीकुंड ) का उल्लेख है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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