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विषय खंड
जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश
इतिहासकारों के मत से वह
ठीं से ८ वीं सदी में हुई होगी ।
इस गच्छ के सम्बन्ध में सब से प्राचीन साधन उपकेशगच्छ चरित्र (सं. १३९३ कक्कसूरिरचित) एवं नाभिनन्दनोद्वार प्रबंध नामक काव्य हैं । पीछे की पूर्ति अन्य संस्कृत एवं अन्य भाषा की पट्टावालियों से होती है । इस गच्छ की आचार्य - परम्परा वैसे बीकानेर के सिद्धसूरि से लोप हो गई थी, पर मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने देवगुप्तसूरि नाम रख कर उसे पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने पार्श्वनाथ परम्परा का विस्तृत इतिहास दो भागों से प्रकाशित किया है । उपकेश गच्छ की एक पट्टावली मुनि जिनविजयजी ने जैन साहित्य संशोधक में प्रकाशित की थी व वही " पट्टावली समुच्चय " में उद्धृत की गई है। उक्त पट्टावली एवं उपकेश गच्छ चरित्र का ऐ. सार, स्व. देसाई ने जैन गुर्जर कवियो भा. ३ के परिशिष्ठ में दिया है । ४० श्लोकों की १ गुर्वावली मुनि जिनविजयजी ने विविध गच्छीय पट्टावली में संग्रह में दी है । उसके अनुसार सं. १२६६ के चैत्र वैशाख में द्विवंदन आदि के मतभेद व आचरण से सिद्धसुरि से “ द्विवंदनीक " शाखा निकली एवं सं. १३०८ त्रिशृंगमपुर के महीपाल राजा के समय " खरतपा ' विरुद प्राप्त होने से ' खरतपा नामक दूसरी शाखा चली । द्विवन्दनीक गच्छ के प्रतिष्ठित प्रतिमा लेखों को मुनि ज्ञानसुंदरजी ने पार्श्वनाथ परम्परा के इतिहास के परिशिष्ठ में संग्रहीत कर प्रकाशित किया है ।
मुनिज्ञानसुंदरजी ने कोरंटकगच्छ को भी इस गच्छ की शाखा बतलाते हुए उसकी आचार्य - परम्परा - नामावली भी उक्त ग्रन्थ में दी है ।
इसकी एक शाखा में मेंदुरीय का उल्लेख एक लेख में पाया जाता है ।
raढवेल्य (उढवगच्छ ) – इस गच्छ के कमलचंद्रसूरि के प्रतिष्ठित सं. १४४६ का लेख प्राचीन लेख संग्रह ( लेखांक ८९) में प्रकाशित है । हमारे लेख संग्रह में चिंतामणि भंडारस्थ सं. १३९१ के लेख में 'उवढवेल्यं' नाम आता है । संभवतः दोनों एक ही । लेखों के पढने व खोदने में अन्तर रह गया है ।
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कच्छोलीवाल (कछ ) - १५ वीं शती के लेख में 'कछोइया गच्छ नाम भी मिलता है । वास्तव में यह पूर्णिमा पक्ष की द्वितीय शाखा है एवं कच्छोली स्थान से सम्बन्धित प्रतीत होता है जो कि सीरोही राज्य में रोहीड़ा स्टेशन से नैर्ऋत्य दिशा में ३५ माइल पर अवस्थित है । प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह एवं पट्टावली समुच्चय प्रकाशित कच्छूलीरास में आचार्य - परम्परा के कुछ नाम मिलते हैं ।
२ में
कडुआमत - नडूलाई के वीसानगर ज्ञातीय कड़वा शाह नामक श्रावक से सं. ९५६२ में उसी के नाम से यह गच्छ या मत चला। इस गच्छ के मान्यताभेद व परम्परा के सम्बन्ध में अष्टम संवरी तेजपाल रचित कड़वा मत पट्टावली (सं. १६८५ पौ. सु. १५ रचित) एवं मुनि जिनविजयजी के जैन साहित्य संशोधक में प्रकाशित पट्टावली
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